Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Tikaye
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 14
________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ दसवें अध्याय में मोक्षतत्त्व के निरूपण के प्रसंग से प्रथम सूत्र में केवल ज्ञान की उत्पति का निरूपण कर दूसरे सूत्र द्वारा सकारण मोक्ष तत्त्व का निरूपण किया गया है। यहां प्रथम सूत्र में घातिकर्मों के नाशके क्रम को भी ध्यान में रखा गया है और दूसरे सूत्र में संवर और निर्जरा - द्वारा समस्त कर्मोका वियुक्त होना मोक्ष है ऐसा न कहकर संवर के स्थान में जो 'बन्धहेत्वभाव' पद का प्रयोग किया है सो उस द्वारा आचार्य गृद्धपिच्छ ने यह तथ्य उद्घाटित किया है कि ' संवर' को ही यहाँ पर व्यतिरेक मुख से ' बन्धहेत्वभाव' कहा गया है, क्योंकि जितने अंश में बन्ध के हेतुओंका अभाव होता है उतने ही अंश में संवर की प्राप्ति होती है । उसे ही दूसरे शब्दों में हम यों भी कह सकते हैं कि जितने अंश में संवर अर्थात् स्वरूपस्थिति होती है उतने ही अंश में बन्ध के हेतुओं का अभाव होता है । ५० पहले दूसरे अध्याय में जीव के पाँच भावोंका निर्देश कर आये हैं। क्या वे पाँचों प्रकार के भाव मुक्त जीवों के भी पाये जाते हैं या उनमें कुछ विशेषता है ऐसी आशंका को ध्यान में रखकर सूत्रकार ने उसका निरसन करने के अभिप्राय से ३ रे और ४ थे सूत्रों की रचना की है। तीसरे सूत्र में तो यह बतलाया गया है कि मुक्त जीवों के कर्मों के उपशम, क्षयोपशम और उदय के निमित्त से जितने भाव होते हैं उनका अभाव तो होही जाता है ! साथ ही भव्यत्व भावका भी अभाव हो जाता है । जैसे किसी उडद में कारणरूपसे पाकशक्ति होती है और किसी विशेष उडद में ऐसी पाक शक्ति नहीं होती उसी प्रकार अधिकतर जीवों में रत्नत्रय को प्रकट करने की सहज योग्यता होती है और कुछ जीवों में ऐसी योग्यता नहीं होती । जिन में रत्नत्रय को प्रकट करने की सहज कारण योग्यता होती है उन्हें भव्य कहते हैं और जिन में ऐसी कारण योग्यता नहीं होती उन्हें अभव्य कहते हैं । स्पष्ट है कि जिन जीवों ने मुक्ति लाभ कर लिया है उनके रत्नत्रयरूप कार्य परिणाम के प्रकट हो जाने से भव्यत्व भावरूप सहज कारण योग्यता के कार्यरूप परिणाम जानेसे वहाँ इसका अभाव स्वीकार किया गया है । उदाहरणार्थ जो मिट्टी घट परिणामका कारण है उसका घट परिणामरूप कार्य हो जाने पर उसमें जैसे वर्तमान में वह कारणता नहीं रहती उसी प्रकार प्रकृत में समझना चाहिये | चौथे सूत्र में मुक्त जीव के जो भाव शेष रहते हैं उन्हें स्वीकार किया है यद्यपि उक्त सूत्र में ऐसे कुछ ही भावों का नामनिर्देश किया गया है जो मुक्त जीवों में पाये जाते हैं । पर वहाँ उनका उपलक्षण रूपसे ही नामनिर्देश किया गया जानना चाहिए । अतः इससे उन भावों का भी ग्रहण हो जाता है। जिनका उल्लेख उक्त सूत्र में नहीं किया गया है, पर मुक्त जीवों में पाये अवश्य जाते हैं । यहाँ यह बात विशेषरूप से ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि ये भाव कर्मक्षय को निमित्तकर होते हैं, इसलिए इन्हें क्षायिक भाव भी कहते हैं । परन्तु सूत्र में इनका क्षायिक भावरूप से उल्लेख नहीं किया गया है। इसका कारण यह है कि ये सब भावस्वभाव के आश्रय से उत्पन्न होते हैं, इसलिए इस अपेक्षा से ये वास्तव में स्वभाव भाव ही हैं । उन्हें क्षायिक भाव कहना यह उपचार है । सूत्रकारने अपने इस निर्देश द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि मुमुक्षु जीव को मोक्ष प्राप्ति के लिये बाह्य सामग्री का विकल्प छोडकर अपने उपयोगद्वारा स्वभावसन्मुख होना ही कार्यकारी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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