Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Tikaye Author(s): Fulchandra Jain Shatri Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 6
________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ ५. विषय परिचय मूल तत्त्वार्थसूत्र में १० अध्याय और ३५७ सूत्र हैं यह पहले बतला आये हैं। उसका प्रथम सूत्र है-'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' इसका समुच्चय अर्थ है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप से परिणत आत्मा मोक्षमार्ग है । मोक्षमार्ग का ही दूसरा नाम आत्मधर्म है। इसका आशय यह है कि रत्नत्रय परिणत आत्मा ही मोक्ष का अधिकारी होता है, अन्य नहीं। वहां इन तीनों में सम्यग्दर्शन मुख्य है, इसीलिए भगवान् कुन्दकुन्द ने दर्शन प्राभृत में इसे धर्म का मूल कहा है । अतः सर्वप्रथम इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए वहां बतलाया है-'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।' जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्वार्थ हैं। पुण्य और पाप आस्रव और बन्ध के विशेष होने से यहां उनकी पृथक् से परिगणना नहीं की गई है। इनका यथावस्थित स्वरूप जानकर आत्मानुभूति स्वरूप आत्म रुचिका होना सम्यग्दर्शन है यह उक्त सूत्र का तात्पर्य है । परमागम में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के जिन बाह्य साधनों का निर्देश किया गया है उनमें देशनालब्धि मुख्य है । छह द्रव्य और नौ पदार्थों के उपदेश का नाम देशना है। उस देशनारूप से परिणत आचार्यादि का लाभ होना और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचार करनेरूप शक्ति का समागम होना देशनालब्धि है। प्रथमादि तीन नरकों में प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के जिन तीन बाह्य कारणों का निर्देश किया गया है उनमें एक धर्मश्रवण भी है। इस पर किसी शिष्य का प्रश्न है कि प्रथमादि तीन नरकों में ऋषियों का गमन न होने से धर्मश्रवणरूप बाह्य साधन कैसे बन सकता है ? इस का समाधान करते हुए बतलाया है की वहाँ पूर्व भव के सम्बन्धी सम्यग्दृष्टि देवों के निमित्त से धर्मोपदेश का लाभ हो जाता है। इस उल्लेख में 'सम्यग्दृष्टि' पद ध्यान देने योग्य है। इस से विदित होता है कि मोक्षमार्ग के प्रथम सोपानस्वरूप सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में सम्यग्ज्ञानी का उपदेश ही प्रयोजनीय होता है । इतना अवश्य है कि जिन्हें पूर्व भव में या कालान्तर में धर्मोपदेश की उपलब्धि हुई है उन के जीवन में उस का संस्कार बना रहने से वर्तमान में साक्षात धर्मोपदेश का लाभ न मिलने पर भी आत्म जागृति होने से सम्यग्दर्शन को प्राप्ति हो जाती है । इन्हीं दोनों तथ्यों को ध्यान में रख कर तत्त्वार्थ सूत्र में—'तनिसर्गादधिगमाद्वा' इस तीसरे सूत्र की रचना हुई है । वे तत्त्वार्थ कौन कौन है जिनके श्रद्धान से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है इस बात का ज्ञान कराने के लिये 'जीवाजीवास्रव '—इत्यादि सूत्र की रचना हुई है । मोक्षमार्ग में निराकुलता लक्षण सुख की प्राप्ति जीव का मुख्य प्रयोजन है, इस लिये सात तत्त्वार्थों में प्रथम स्थान चैतन्य लक्षण जीव का है। अजीव (स्व से भिन्न अन्य ) के प्रति अपनत्व होने से जीव की संसार परिपाटी चली आ रही है, इसलिये १. जीवस्थान चूलिका पृ. २०४।४, जीवस्थान चूलिका, नौवीं चूलिका सूत्र ७ व ८ । २. जीवनस्थान चूलिका, पृ. ४२२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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