Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 1
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 17
________________ ८ ] - तारण - वाणी शुद्धतत्वं च वेदंते, त्रिभुवनम् ज्ञानेश्वरं । ज्ञानं मयं जलं शुद्ध, स्नानं ज्ञानं पंडितः ॥ १० ॥ हस्तमलकवत् जिसको तीनों भुवन चराचर प्राणी हैं । उसी ब्रह्म को ध्याते हैं बस, जो बुधजन विज्ञानी हैं | शुद्ध आत्म है स्वच्छ सरोवर, कल कल करता जिसमें ज्ञान । इसी ज्ञानरूपी जल में नित, पंडित जन करते ( हैं ) स्नान || जो अपने असीम ज्ञान से समस्त चराचर प्राणियों के घट घट की और तीनों लोक की समस्त बातों को हाथ में रखे हुये आंवले के समान देखता और जानता है, वही ज्ञान का ईश्वर ओम् या शुद्धात्मा विद्वानों के पूजन का एक मात्र आधार होता है । विद्वज्जन लोक की देखादेखी नदी, तालाबों में स्नान करके अपने को धार्मिक या पवित्र नहीं मानते, किन्तु ज्ञानपूर्ण जलाशय एक मात्र शुद्धात्मा में ही स्नान कर उनकी अपनी आत्मा विशुद्धता को प्राप्त होती है, ऐसा उनका अपना विश्वास रहता है । सम्यक्तस्य जलं शुद्ध, संपूर्ण सर पूरितं । स्नानं पिवत गणधरनं ज्ञानं सरनंतं ध्रुवं ॥११॥ , सम्यग्दर्शन रूपी जिसमें भरा हुआ है नीर अगम्य । ऐसा है वह परम ब्रह्म का, भव्यो ! सरवर अविचल रम्य ॥ महामुनीश्वर श्री गणधर जी, जिनकी शरण अनेकों ज्ञान । इस सर में ही अवगाहन कर, करते इसका ही जलपान ॥ जिनकी शरण में अनेकों ज्ञान ठौर पा रहे थे, वे गणधर प्रभु भी नदी सरोवर के जल से ही अपने को पवित्र हुआ नहीं मानते थे, किन्तु वे भी उसी जलाशय का उपभोग करते थे, जिसमें रत्नत्रय रूपी अगम्य नीर भरा हुआ है और जो मुमुक्षुओं के संसार में 'शुद्धात्मा' के नाम से प्रसिद्ध है तथा जो अपने ही पास है 1

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