Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 1
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 31
________________ २२ ] तारण - वाणी : नमामि भक्तं श्रीवीरनाथं, नंतं चतुष्टं तं व्यक्त रूवं । मालागुणं बोच्छं तत्त्वप्रबोधं नमाम्यहं केवलि नंत सिद्धं ॥२॥ " जोsनंत चतुष्टय के निकेतन, जिनके न डिंग अष्ट कर्मारि बसते । मेरा युगल पाणि से हो नमस्ते || ऐसे जिनेश्वर श्री वीर प्रभु को मैं केवली, सिद्ध, परमेष्ठियों को , भी भक्ति से आज मस्तक नवाता । जो सप्त तत्वों की है प्रकाशक, उस मालिका के गुण आज गाता ॥ अनंत दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनंत वीर्य के धारी तथा शुद्धात्मा के सर्वोत्तम प्रतीक, भगवान महावीर को भी मैं नमस्कार करता हूँ, तथा कमों की बेड़ियों को काटकर आज तक जितने भी जीव स्वाधीन होकर मुक्ति नगर को पहुँच चुके हैं उनके चरणों में भी नत मस्तक होकर हे श्रावको ! मैं तुम्हारे सामने कल्याण के लिये उस माला की या शुद्धात्मा की चर्चा करता हूँ, जो मर्मज्ञ संसार के बीच अध्यात्म या समकित माल के नाम से प्रसिद्ध है । कायाप्रमाणं त्वं ब्रह्मरूपं निरंजनं चेतनलक्षणत्वं । भावे अनेत्वं जे ज्ञानरूपं, ते शुद्ध दृष्टी सम्यक्त्व वीर्यं ॥३॥ इस ब्रह्मरूपी निज आत्मा का काया बराबर स्वच्छंद तन है । मल से विनिर्मुक है यह घनानंद, चैतन्य संयुक्त तारनतरन है । जो इस निरंजन शुद्धात्मा के, शंकादि तजकर बनते पुजारी । - वे ही सफल हैं निज आत्मबल में, वे ही सुजन हैं सम्यक्त्वधारी ॥ आत्मा जिस शरीर में निवास करती है उसी प्रमाण अपना रूप धारण कर लेती है, किन्तु नश्वर के साथ अनश्वर का यह मेल अनेक भेदों से भरा हुआ है। काया जहाँ अंधकार से परिपूर्ण है वहाँ आत्मा निरंजन- प्रकाशमय है, अंधकार का उस पर कोई पर्दा नहीं, जहाँ काया अचेतन है, वहाँ आत्मा में चेतना का अविनाभावी संबंध है। जो ज्ञानी पुरुष इस श्रात्मा के शंकादि छोड़कर निश्चल पुजारी बन जाते हैं, वे ही वास्तव में अपने आत्मबल में सफल होते हैं और वे ही इस संसार में 'सम्यग्दृष्टि' नाम की संज्ञा प्राप्त करते हैं।

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