Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 1
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 33
________________ तारण-वाणी= जे मुक्ति सुक्खं नर कोपि माध, सम्यक्त्व शुद्धं ते नर धरेत्वं । रागादयो पुन्य पापाय दुरं, ममात्मा स्वभावं ध्रुव शुद्ध दृष्टं ॥६॥ मैं सिद्ध हूँ, मुक्तिरमणी बिहारी, है मोक्ष मेरी यही चारु काया । मद मोह मल पुण्य रागादिकों की, पड़ती न मुझ पर कभी भूल छाया । मम्यक्त्व से पूर्ण जिनके हृदय हैं. जो चाहते मोक्ष किप रोज पायें । वे स्वावलम्बी इसी भांति अपने, हृदयस्थ परमात्मा को रिझावें ॥ संमार बन्धनों को काटकर, जो मुक्ति के अनन्त सुम्ब को पाने के अभिलापी हैं, जिनके हृदयमगंवर में मम्यक्त्व पल पल शीतल हिलोरें लिया करना है, उन्हें अपनी आत्मा को पहिचानने में तनिक भी समय नहीं लगता ! वे जानते हैं कि मैं ध्रुव हूँ, शाश्वन हूँ और शुद्ध दृष्टा अनन्त ज्ञान का धारी हूँ, वह अलौकिक आत्मा है जो तीन लोक को प्रकाशित करती है। और हूँ प्रकाश का वह पुज जो सदैव अबाध गति से एक समान चमकना रहता है। राग, द्वेप, पुण्य पाप इन विकारों की कोई छाया उनकी आत्मा पर नहीं पड़ती। एसे सम्यग्दृष्टी जीव अपनी आत्मा का चितवन ठीक इसी तरह से करते रहते हैं। उनका ऐसा आत्मचिंतन ही उनकी आत्मा को परमात्मा बना देता है। श्री केवलंज्ञान विलोकतत्वं, शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्वं । सम्यक्त्व ज्ञानं चर नंत सौख्यं, तत्वार्थ सार्धं त्वं दर्शनेत्वं ॥७॥ ज्ञानारसी में जिस तत्व का रे ! दिखता सतत है प्रतिबिमा प्यारा । जिसके बदन से प्रतिपल बिखरता, रहता प्रभा-पुंज शुचि शुद्ध न्यारा । सम्यक्त्व की पूण प्रतिमूर्ति है जो, है जो अनूपम आनन्द-राशी । तत्त्वार्थ के सार उस आत्मा को, देखो, बिलोको, मोक्षाभिलाषी ॥ कंवलज्ञान में जिस तत्व की स्पष्ट छाया दृष्टिगोचर होती है; जिसके कण-कण से प्रकाश के सैकड़ों पुज एक साथ प्रस्फुटित होते रहते हैं तथा जो सम्यक्त्व की पूर्ण प्रतिमूर्ति है ऐसा शुद्धात्म तत्त्व ही वास्तव में सदैव मनन करने योग्य है।

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