Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 1
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

View full book text
Previous | Next

Page 60
________________ तारण-वाणी [५१ न्यान सहाव सु समय, अन्मोयं ममल न्यान सहकारं । न्यानं न्यान सरूवं, ममलं अन्मोय सिद्धि सम्पत्तं ॥२४॥ आत्म-सरोवर में रमना ही, ज्ञान-स्वरूप है भाई ! आत्मज्ञान से ही मिलता है, केवलज्ञान सुहाई ॥ आत्मज्ञान ही से पाता नर, पद अरहन्त सुखारी । आत्मज्ञान के बल पर ही नर, बनते शिव-अधिकारी । आत्म-सरोवर में रमण करना और ज्ञान-स्वरूप में आचरण करना ये दोनों शब्द एक ही पर्याय के वाची हैं जिनसे आत्मज्ञान और कालान्तर में केवलज्ञान को उपलब्धि होती है। ___ आत्मज्ञान से ही मनुष्य बढ़ते बढ़ते अरहन्त पद को प्राप्त कर लेता है और अरहन्त पद से ही वह मुक्ति के साम्राज्य में जाकर अपना निवास बना लेता है। इष्टं च परम इष्ट, इष्टं अन्मोय विगत अनिष्ट । पर पर्जायं विलयं, न्यान सहावेन कम्मजिनियं च ॥२५॥ त्रिभुवन में सर्वोत्कृष्ट बस, इस चेतन का पद है। निज स्वरूप में रमना ही वस, अहित-विगत सुख-प्रद है ।। आत्म मनन से कर्मों की सब, बेड़ी कट जाती हैं । इसके सन्मुख पर पर्यायें, पास नहीं आती हैं। त्रिभुवन में यदि कोई सबसे श्रेष्ठ पद है तो वह केवल एक शुद्धात्मा का ही है, और यदि कोई सर्वोच्च सुख्ख प्रदान करने वाली स्थिति है तो वह है आत्मरमण । प्रात्मरमण से कर्मों की सारी बेड़ियां कटकर खंड खंड हो जाती हैं और जब तक आत्मरमण की यह स्थिति विद्यमान रहती है तब तक संसार की पर पर्य ये इसके सम्मुग्ब पदार्पण नहीं करतीं-वे दूर रहती हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64