Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 1
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 16
________________ तारण-वाणी [ ૭ देवं गुरुं श्रुतं वंदे, धर्मशुद्धं च विंदते । तिअर्थ अर्थलोकं च, स्नानं च शुद्ध जलं ॥८॥ आतम ही है देव निरंजन, आतम ही सद्गुरु भाई । आतम शास्त्र, धर्म आतम ही, तीर्थ आत्म ही सुखदाई ॥ आत्म-मनन ही है रत्नत्रय-पूरित अवगाहन सुखधाम । ऐसे देव, शास्त्र, सद्गुरुवर, धर्मतीर्थ को सतत प्रणाम । आत्मा ही सच्चा देव है; आत्मा ही सचा गुरु है; आत्मा ही सच्चा शास्त्र है; आत्मा ही सच्चा धर्म है और आत्मा ही सच्चा तीर्थ है। और यदि वास्तव मैं पूछा जाय तो रत्नत्रय से पूरित इस आत्मा का मनन ही एक मात्र सञ्चा स्नान है। ऐसे आत्मा रूपी देव, गुरु, शास्त्र, धर्म और तीर्थ को मैं नित्य मन वचन काय से प्रणाम करता हूँ। चेतना लक्षणो धर्मों, चेतियंति सदा बुधै। ध्यानस्य जलं शुद्ध, ज्ञानं स्नान पंडितः ॥९॥ चिदानन्द ध्रुव शुद्ध आत्मा, की चेतनता है पहिचान । बुद्धिमान जन नित्य निरन्तर, धरते हैं उसही का ध्यान । नदी सरोवर में करते हैं, अवगाहन जड़ अज्ञानी । आत्म-ज्ञान-जल से प्रक्षालन, करते सत्पंडित ज्ञानी ॥ आत्मा का लक्षण चेतना से संयुक्त है और इसी चेतना के नाते, बुद्धि के धनी बुद्धिमान जन उसका अहर्निश मनन करते हैं। नदी, सरोवर और कुण्डों में तो ( धर्मभाव से ) केवल स्थूल-बुद्धि के मानव स्नान करते हैं, किन्तु जो प्रज्ञाधारी पंडित होते हैं, वे आत्म-मनन के जलाशय में ही स्नान करके अपने को पूर्ण पवित्र और कृत्यकृत्य मानते हैं। .

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