Book Title: Syadvada aur Saptabhanginay
Author(s): Bhikhariram Yadav
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ ( ७ ) नहीं है। यद्यपि ध्रौव्यत्व और उत्पत्ति-विनाश के धर्म परस्पर विरोधी हैं, किन्तु दोनों को सहवर्ती माने बिना विश्व की व्याख्या असम्भव है। यही कारण था कि भगवान् महावीर ने अपने युग में प्रचलित शाश्वतवादी और उच्छेदवादी आदि परस्पर विरोधी विचार धाराओं के मध्य में समन्वय करते हुए अनेकान्तिक दृष्टि से वस्तुतत्त्व को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक कहकर परिभाषित किया ।' जिनोपदिष्ट यह त्रिपदो ही अनेकान्तवादी विचार-पद्धति का आधार है। स्याद्वाद और नयवाद सम्बन्धी विपूल साहित्य मात्र इसका विस्तार है। त्रिपदी ही जिन द्वारा वपित वह "बीज" है जिससे स्याद्वाद रूपी वट वृक्ष विकसित हआ है। यह वस्तुतत्त्व के उस अनेकान्तिक स्वरूप को सूचक है जिसका स्पष्टीकरण भगवतीसूत्र में स्वयं भगवान् महावीर ने विविध प्रसंगों में किया है। उदाहरणार्थ जब महावीर से गौतम ने यह पूछा कि हे भगवन् ! जीव नित्य या अनित्य है ? हे गौतम ! जीव अपेक्षाभेद से नित्य भी है और अनित्य भी। भगवन् ! यह कैसे ? हे गौतम ! द्रव्य दृष्टि से जीव नित्य है, पर्याय दष्टि से अनित्य ।२ इसी प्रकार एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उन्होंने सोमिल को कहा था कि-हे सोमिल ! द्रव्य-दृष्टि से मैं एक हूँ, किन्तु परिवर्तनशील चेतनावस्थाओं ( पर्यायों) की अपेक्षा से मैं अनेक भी हूँ। वस्तुतत्त्व के इस अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक स्वरूप का यह प्रतिपादन उक्त आगम में बहुत ही विस्तार के साथ हुआ है किन्तु लेख की मर्यादा को दृष्टिगत रखते हुए उपरोक्त एक-दो उदाहरण ही पर्याप्त होंगे। वस्तुतत्त्व की यह अनन्तधर्मात्मकता तथा उसमें विरोधी धर्म-युगलों को एक साथ उपस्थिति अनुभव सिद्ध है। एक हो आम्रफल खट्टा और मधुर (खट्टा-मीठा) दोनों ही हो सकता है। पितृत्व और पुत्रत्व के दो विरोधो गुण अपेक्षा भेदसे एक ही व्यक्तिमें एक ही समयमें साथ-साथ सिद्ध हो सकते हैं। वास्तविकता तो यह है कि जिन्हें हम विरोधी धर्म युगल मान लेते हैं, उनमें सर्वथा या निरपेक्ष रूप से विरोध नहीं है। अपेक्षा भेद से उनका एक ही वस्तुतत्त्व में एक ही समय में होना सम्भव है। भिन्न१. उत्पादव्ययध्रौव्युक्तं सत्-तत्त्वार्थसूत्र ५-२९ २. गोयमा ! जीवा सिय सासया सिय असासया-दव्वठ्ठयाए सासया भावट्ठयाए असासया-भगवती सूत्र ७-३-२७३ । ३. भगवतीसूत्र--१-८-१० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 278