Book Title: Syadvad Drushti Author(s): Shivnarayan Gaud Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf View full book textPage 2
________________ दूसरे छोर पर बौद्धों का वह क्षणिकवाद है जिसके अनुसार संसार या उसके पदार्थ - अनिरुद्धमनुत्पादं मनुच्छेदम शाश्वतम् । अनेकार्थमनानार्थमनागम-मनिर्गमम् ॥ इसीको दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि न सद्, नासद्, न सदसत्, न चानुभवात्मकम् चतुष्कोटि विनिर्युक्तं सत्वं माध्यमिका विदुः ॥ उनके मतानुसार तो परमार्थो हि आर्याणां तूष्णीभावः । मा.वृ. Fles माध्यमिकावृत्ति उठी- 5 सकता उत्सा यह संसार क्या है, पदार्थ क्या है आदि प्रश्नों पर चुप्पी साध लो । बुद्ध ने दार्शनिक प्रश्नों को अव्याकृत कहकर छुट्टी पाली । इन दोनों ध्रुवों के बीच और भी कई विचारधाराएं हैं जो भेद, अभेद, एक अनेक, स्थायी अस्थायी आदि रूपों में इस संसार का वर्णन करती हैं। पर जैन मत में वे सब एकांगी हैं, एकांशी हैं, खण्डित या एकाग्रही हैं । सत्य को पूर्णरूप में समझने के लिए उनमें समन्वय और सभी का समादर करने की आवश्यकता है । इसी अनाग्रही, सर्वांगीण, सामञ्जस्यपूर्ण दृष्टि को स्यादवाद या अनेकान्तवाद का नाम दिया गया। सत्य एक है किन्तु उसको समझने के दृष्टिकोण अनेक हैं । विभिन्न दृष्टिकोणों में अनाग्रहपूर्वक सत्य का साक्षात्कार करना और उसका सम्यक् निर्वचन करना यही स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है। विश्व की संरचना विविध विरोधों का समन्वित रूप है और वे सब उसके धर्म हैं, स्वभाव हैं। उनके अतिरिक्त विश्व का अन्य कोई रूप नहीं है। ये विरोध प्रतिद्वन्द्वी नहीं हैं, किन्तु परस्पर सापेक्ष हैं। उनका आधार एक है और वे आधार के प्रति एकनिष्ठ हैं। इस तथ्य को स्वीकार करने पर वैचारिक संघर्ष और विवाद के लिए अवकाश ही नहीं रह जाता है । " स्याद्वाद दृष्टि अनाग्रही होती है । उसका लक्ष्य सत्य की खोज करना है इसीलिए उसकी एक ही आकांक्षा रहती है यत्सत्यं तन्मदीयम् जो सत्य है वही मोक्ष है। उसका मानना है कि, सयं सयं प्रसंसंता, गरदंता, परं लखं । जे उ तत्थ विहस्यन्ति, संसारे ते बिडस्सिया || जो अपने को पंडित मान कर अपनी ही प्रशंसा करते और दूसरों की निन्दा करते हैं वे संसार में चक्कर लगाते रहते हैं। स्याद्वाद दृष्टि का मानना है कि सत्य एक है, उसके रूप अनेक हैं । देशकाल के अनुसार वे सत्य के एक अंश को ही ग्रहण कर सकते हैं। अतएव परस्पर विरोधी दिखाई देती हुई भी वे सभी दृष्टियां सत्य हैं । जैनदर्शन के अनुसार सम्यक दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः है । ज्ञान की उपलब्धि के दो साधन हैं, प्रमाण और नय । प्रमाण का अर्थ है सकलादेश और नय का विकलादेश सकलादेशः प्रमाणाधीनो, विकलादशो नयाधीन इति (सर्वार्थसिद्धि १-६) यह ज्ञान पदार्थ पर आधारित होता है । सत्य सत् या सत्ता पर निर्भर करता है। यह संसार विविध पदार्थों का संग्रह है जिन्हें श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education International समष्टि व व्यष्टि दोनों ही रूपों में इस प्रकार परिभाषित किया जा है कि, उत्पादव्ययधीव्ययुक्तम् सत् या प्राकृत में उप्पन्नइवा विमेद वा धुवेइ वा पदार्थ, वस्तु या द्रव्य उत्पन्न होता, नष्ट होता, दिखाई देता है फिर भी मूलरूप में बना भी रहता है या इतने परिवर्तनों, रूपान्तरों के बीच भी स्थिर रहता है, मूलरूप में नष्ट नहीं होता । परिवर्तनशील संसार में पदार्थों के रूपान्तर होते रहते हैं, उनके गुणधर्म बदलते रहते हैं, एक ही व्यक्ति बाल, युवा, वृद्ध होता है, वह भले-बुरे कर्म करता है, पदार्थ के रूप, रंग, रस, कार्य बदलते जाते हैं । इस प्रकार वस्तु अनेक धर्मात्मक है, जिनमें से कुछ समान होते हैं तो कुछ विरोधी इन विशेषताओं को समझकर वस्तुस्थिति का परिचय पा लेना ही ज्ञान है । उसकी ओर आगे बढ़ने का प्रारम्भिक साधन है। विरोधी धर्मों का निषेध न करते हुए वस्तु के एक अंश या धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय नय कहलाता है । (अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः । ) प्रमाणसे निश्चित किये हुए पदार्थों के एक अंश के ज्ञान करने को नय कहते हैं । ( प्रमाण परिच्छिन्नस्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनि एक देशग्राहिणस्तदितरांशोऽप्रतिक्षेपिणोऽध्यवसायविशेषा नयाः । अथवा प्रमाणप्रतिपन्नार्थैकदेशपरामर्शो नयः । नय का अर्थ है अभिप्राय, दृष्टि, विवक्षा, या अपेक्षा तथा अपेक्षाभेद से होनेवाले वस्तु के विभिन्न अध्यवसाय । नय कथन करने की एक प्रक्रिया है, वचन विन्यास है। वे ज्ञान की ओर छे जाते हैं, नयन्तीतिनयाः । नय का अभिप्राय यही है कि सभी पक्ष, सभी मत पूर्ण सत्य को जानने के भिन्न-भिन्न प्रकार हैं किसी एक प्रकार की इतनी प्रधानता नहीं कि वही सत्य है और दूसरा सत्य नहीं हैं। सभी पक्ष अपनी-अपनी दृष्टि से सत्य हैं। इसीलिए दृष्टियां भी अनेक हो सकती हैं। जावइआ वयणपदा तावदआ देव हुति नयवादा । सत्य के जितने कथन हो सकते हैं उतने दी नय वाद हैं । नय एक ही वस्तु को अपेक्षाभेद से या अनेक दृष्टिकोणों से ग्रहण करने वाले विकल्प हैं । प्रमाण और नय में यह अन्तर है कि प्रमाण में अनन्त धर्मात्मक वस्तु के सभी धर्मों के ज्ञान का समावेश हो जाता है और नय वस्तु के किसी एक अंश को मुख्य और अन्य अंशों को गीण करके ग्रहण करता है, किन्तु उनकी उपेक्षा या तिरस्कार नहीं करता । नय के व्यापक क्षेत्र को सुविधा के विचार से निम्नलिखित सात क्षेत्रों में वर्गीकृत किया गया है नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द समभिरूढ़ और एवंभूत नाम के साथ इनके क्रमों का भी महत्त्व है। ये एक दूसरे से तो जुड़े हैं ही पर क्रम से स्थूल से सूक्ष्म या सामान्य से विशिष्टता की ओर बढ़ते जाते हैं । (३६) For Private & Personal Use Only 100 ga शिरल धर्म धैर्य शुभ ध्यान धर, धी धन धारण हार । जयन्तसेन पुरुष रतन, करत जगत उद्धार ॥ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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