Book Title: Syadvad Drushti
Author(s): Shivnarayan Gaud
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/212232/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद-दृष्टि (पं. शिवनारायण गौड़) है, पर यात्री है जिस र विज्ञान के स्व और पर कारण वह घोष व उद्भावना सकता है । इस का यह विस्तृन, विशाल संसार हमारे जीवन की चरम इकाई समदर्शन हो या विज्ञान इनके कार्य हवा में नहीं चलते वे इस है। इससे परे क्या है कौन जाने ? और हम न भी जान पावें तब संसार के सहारे चलते हैं, संसार में रहकर चलते हैं, अपने सीमित भी हमारा काम तो चल ही जाता है । प्रसन्नता की बात है कि साधनों से चलते हैं । इस कार्य में सहायता करते हैं हमारे शरीर, उसका आयाम दिन पर दिन बढ़ता जाता है और हमारी उसे उसकी इन्द्रियां, हमारे सहित यह पूरा संसार । एक प्रकार से हम देखने-समझने की शक्ति भी कई प्रकार के उपकरणों की सहायता संसार के द्वारा ही संसार को समझने का प्रयास करते हैं, विचारों से निरन्तर बढ़ती जा रही है। फिर भी संसार की तुलना में हमारी के द्वारा विचार और संसार को जानने का प्रयास करते हैं, इस पृथ्वी नगण्य है और उसकी तुलना में जीव जगत् तुच्छ है | पर बीच यह संसार भी हमारे जीवन, हमारे विचार और स्वयं अपने मनुष्य पर विचार करें तो उसकी एक प्रकार की तुच्छता दूसरे को प्रभावित करता रहता है। यह स्थिति वैसी ही है जैसे आंखों से प्रकार की उच्चता में बदलती दिखाई देती है । मनुष्य का शरीर आंखों को देखना, किसी पैमाने से खुद उस पैमाने को नापना, चाहे छोटा हो, उसकी शक्तियां चाहे सीमित हों अपने ज्ञान की विचार से विचार पर विचार करना । पूंजी के कारण वह बहुत बड़ा है और उसकी गुप्त संभावनाओं पर गनीमत है कि हममें और संसार में ऐसी क्षमता है कि वह विचार करें तो उसकी क्षमता देवों की कोटि तक पहुंचती दिखाई स्व को पर में और परको स्व में बदल सकता है । इस कार्य में देती है। उसे विचार, भाव कल्पना व उद्भावना से बड़ी सहायता मिलती अपने ज्ञान की कुंजी से ही वह संसार के रहस्य खोजने का है। इनके कारण वह धोखा भले ही खा जावे, इनकी सहायता से प्रयास करता है । इस रूप में उसे जो कुछ मिलता है उसे हम स्व और पर में आलोडन विलोडन करके संसार को (और अपने विज्ञान कहते हैं। पर विज्ञान क्या अन्तिम सच्चाई है ? विज्ञान के को भी) विविध दृष्टियों से, विविध प्रकार से समझने, परखने में इतिहास को देखें तो वह एक ऐसा यात्री है जिसकी यात्रा का सफल होता है। क्षितिज विस्तृत होता जाता है, पर मंजिल कहां है, अन्तिम लक्ष्य जा इस दार्शनिक विचारधारा के अनुसार सत्य एक है, उसके क्या है, इसे अनन्त का पथिक कैसे जान सकता है ? रूप अनेक हैं, भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न देशकाल के अनुसार पर मनुष्य भी कोई हार माननेवाला प्राणी नहीं है । एक सत्य के एक अंश को ही ग्रहण कर सकते हैं, जब सभी दृष्टियां यात्रा करता है तो दूसरा उसकी सहायता करता है और तीसरा आंशिक सत्य हैं तो पूर्ण सत्य को पाने का एक ही मार्ग है उनका उसका मार्गदर्शन करता चलता है । हमारा जीवन पारस्परिक योग । पर यह योग यदि बेमेल हो तो टांग सिर पर और सिर पेट सहयोग का एक अच्छा उदाहरण है । हरेक अपने योग्य काम चुन पर बिठा देने जैसी स्थिति बन सकती है । इसीलिए विरोध में लेता और जीवनक्रम को आगे बढ़ाता है, इसीलिए हरेक अलगअलग अविरोध की सम्यक् स्थापना करना ही स्याद्वाद की साधना है। काम-धंधे करता दिखाई देता है, पर अन्तिम रूप में सब एक ही संसार के विषय में दो अतिवादी दृष्टियां हैं - पहली वैदिक दर्शन उद्देश्य में लगे रहते हैं । इस सामूहिक एकलक्ष्यी जीवन को समझने के अनुसार के प्रयास को हम दर्शन कहते हैं । दर्शन की यात्रा भी बहुत लम्बी और व्यापक रही है, पर उसका अन्तिम उद्देश्य रहा है जीवन और सर्वं खल्विदं ब्रह्म,नेह नानाऽस्ति किंचन । उसके साथ जगत में एकरूपता खोजना, संसार की विषमताओं के जीर आरामं तस्य पश्यन्ति, न तत् पश्यति कश्चन ।। बीच एकता तलाशना, विरोधों के बीच समन्वय स्थापित करना । यह सारा संसार अलग-अलग दिखाई देकर भी मूलतः एक ही निश्चित ही यह कार्य विज्ञान से भी अधिक कठिन है । ब्रह्मसत्ता का विस्तार है, वैसे ही जैसे दुनिया भर का पानी कई विज्ञान संसार के विश्लिष्ट करते देखने का प्रयास करता है, पर स्थानों से कई रूपों में समुद्रतक पहुंच कर बादल बनता, बिजली व विश्लेषण से वस्तु की सत्ता लोप चाहे न हो । रूपान्तरित तो हो ही गर्जन में बदलकर फिर जल बन जाती है । हमारा जीवन ही नहीं । उसका आधार यह संसार भी जाता है । यही दशा मिट्टी (पृथ्वी), एक इकाई के रूप में, एकलक्ष्यी यात्री की भांति पूरी व्यवस्था के आग (अग्नि) आदि की भी है । ये साथ नियमित रूप से निरन्तर चल रहा है, चल ही नहीं रहा एक कई रूपधारण करके भी अन्ततः यात्रा कर रहा है, इसलिए उसके अंगों, उसके पथ या पड़ावों का एक ही ब्रह्म तत्त्व के आभास हैं, बिखरा विश्लेषण पूरी यात्रा व उसके जुड़े उद्देश्य का सम्पूर्ण चित्र परिवर्तितरूप हैं । वे ब्रह्म से उत्पन्न प्रस्तुत नहीं कर सकता । इस कार्य का सम्पादन दर्शन करता है। (परिणत) होते और ब्रह्म में ही लीन वह जीवन जगत का संश्लिष्ट चित्र देकर उसे जीवित रूप में हमारे होकर ब्रह्ममय बन जाते हैं । सामने रखने का प्रयास करता है। बिठा र योग यदि सत्य को पाने सकते हैं, जो यात्री की भांति नहीं रहा एक एक ही ब्रह्म तत्वव ब्रह्म से (३५) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण द्विरद चले निज चाल से, श्वान भसत तस लार । जयन्तसेन फिकर तजो, अन्त श्वान की हार |Morary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे छोर पर बौद्धों का वह क्षणिकवाद है जिसके अनुसार संसार या उसके पदार्थ - अनिरुद्धमनुत्पादं मनुच्छेदम शाश्वतम् । अनेकार्थमनानार्थमनागम-मनिर्गमम् ॥ इसीको दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि न सद्, नासद्, न सदसत्, न चानुभवात्मकम् चतुष्कोटि विनिर्युक्तं सत्वं माध्यमिका विदुः ॥ उनके मतानुसार तो परमार्थो हि आर्याणां तूष्णीभावः । मा.वृ. Fles माध्यमिकावृत्ति उठी- 5 सकता उत्सा यह संसार क्या है, पदार्थ क्या है आदि प्रश्नों पर चुप्पी साध लो । बुद्ध ने दार्शनिक प्रश्नों को अव्याकृत कहकर छुट्टी पाली । इन दोनों ध्रुवों के बीच और भी कई विचारधाराएं हैं जो भेद, अभेद, एक अनेक, स्थायी अस्थायी आदि रूपों में इस संसार का वर्णन करती हैं। पर जैन मत में वे सब एकांगी हैं, एकांशी हैं, खण्डित या एकाग्रही हैं । सत्य को पूर्णरूप में समझने के लिए उनमें समन्वय और सभी का समादर करने की आवश्यकता है । इसी अनाग्रही, सर्वांगीण, सामञ्जस्यपूर्ण दृष्टि को स्यादवाद या अनेकान्तवाद का नाम दिया गया। सत्य एक है किन्तु उसको समझने के दृष्टिकोण अनेक हैं । विभिन्न दृष्टिकोणों में अनाग्रहपूर्वक सत्य का साक्षात्कार करना और उसका सम्यक् निर्वचन करना यही स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है। विश्व की संरचना विविध विरोधों का समन्वित रूप है और वे सब उसके धर्म हैं, स्वभाव हैं। उनके अतिरिक्त विश्व का अन्य कोई रूप नहीं है। ये विरोध प्रतिद्वन्द्वी नहीं हैं, किन्तु परस्पर सापेक्ष हैं। उनका आधार एक है और वे आधार के प्रति एकनिष्ठ हैं। इस तथ्य को स्वीकार करने पर वैचारिक संघर्ष और विवाद के लिए अवकाश ही नहीं रह जाता है । " स्याद्वाद दृष्टि अनाग्रही होती है । उसका लक्ष्य सत्य की खोज करना है इसीलिए उसकी एक ही आकांक्षा रहती है यत्सत्यं तन्मदीयम् जो सत्य है वही मोक्ष है। उसका मानना है कि, सयं सयं प्रसंसंता, गरदंता, परं लखं । जे उ तत्थ विहस्यन्ति, संसारे ते बिडस्सिया || जो अपने को पंडित मान कर अपनी ही प्रशंसा करते और दूसरों की निन्दा करते हैं वे संसार में चक्कर लगाते रहते हैं। स्याद्वाद दृष्टि का मानना है कि सत्य एक है, उसके रूप अनेक हैं । देशकाल के अनुसार वे सत्य के एक अंश को ही ग्रहण कर सकते हैं। अतएव परस्पर विरोधी दिखाई देती हुई भी वे सभी दृष्टियां सत्य हैं । जैनदर्शन के अनुसार सम्यक दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः है । ज्ञान की उपलब्धि के दो साधन हैं, प्रमाण और नय । प्रमाण का अर्थ है सकलादेश और नय का विकलादेश सकलादेशः प्रमाणाधीनो, विकलादशो नयाधीन इति (सर्वार्थसिद्धि १-६) यह ज्ञान पदार्थ पर आधारित होता है । सत्य सत् या सत्ता पर निर्भर करता है। यह संसार विविध पदार्थों का संग्रह है जिन्हें श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण समष्टि व व्यष्टि दोनों ही रूपों में इस प्रकार परिभाषित किया जा है कि, उत्पादव्ययधीव्ययुक्तम् सत् या प्राकृत में उप्पन्नइवा विमेद वा धुवेइ वा पदार्थ, वस्तु या द्रव्य उत्पन्न होता, नष्ट होता, दिखाई देता है फिर भी मूलरूप में बना भी रहता है या इतने परिवर्तनों, रूपान्तरों के बीच भी स्थिर रहता है, मूलरूप में नष्ट नहीं होता । परिवर्तनशील संसार में पदार्थों के रूपान्तर होते रहते हैं, उनके गुणधर्म बदलते रहते हैं, एक ही व्यक्ति बाल, युवा, वृद्ध होता है, वह भले-बुरे कर्म करता है, पदार्थ के रूप, रंग, रस, कार्य बदलते जाते हैं । इस प्रकार वस्तु अनेक धर्मात्मक है, जिनमें से कुछ समान होते हैं तो कुछ विरोधी इन विशेषताओं को समझकर वस्तुस्थिति का परिचय पा लेना ही ज्ञान है । उसकी ओर आगे बढ़ने का प्रारम्भिक साधन है। विरोधी धर्मों का निषेध न करते हुए वस्तु के एक अंश या धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय नय कहलाता है । (अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः । ) प्रमाणसे निश्चित किये हुए पदार्थों के एक अंश के ज्ञान करने को नय कहते हैं । ( प्रमाण परिच्छिन्नस्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनि एक देशग्राहिणस्तदितरांशोऽप्रतिक्षेपिणोऽध्यवसायविशेषा नयाः । अथवा प्रमाणप्रतिपन्नार्थैकदेशपरामर्शो नयः । नय का अर्थ है अभिप्राय, दृष्टि, विवक्षा, या अपेक्षा तथा अपेक्षाभेद से होनेवाले वस्तु के विभिन्न अध्यवसाय । नय कथन करने की एक प्रक्रिया है, वचन विन्यास है। वे ज्ञान की ओर छे जाते हैं, नयन्तीतिनयाः । नय का अभिप्राय यही है कि सभी पक्ष, सभी मत पूर्ण सत्य को जानने के भिन्न-भिन्न प्रकार हैं किसी एक प्रकार की इतनी प्रधानता नहीं कि वही सत्य है और दूसरा सत्य नहीं हैं। सभी पक्ष अपनी-अपनी दृष्टि से सत्य हैं। इसीलिए दृष्टियां भी अनेक हो सकती हैं। जावइआ वयणपदा तावदआ देव हुति नयवादा । सत्य के जितने कथन हो सकते हैं उतने दी नय वाद हैं । नय एक ही वस्तु को अपेक्षाभेद से या अनेक दृष्टिकोणों से ग्रहण करने वाले विकल्प हैं । प्रमाण और नय में यह अन्तर है कि प्रमाण में अनन्त धर्मात्मक वस्तु के सभी धर्मों के ज्ञान का समावेश हो जाता है और नय वस्तु के किसी एक अंश को मुख्य और अन्य अंशों को गीण करके ग्रहण करता है, किन्तु उनकी उपेक्षा या तिरस्कार नहीं करता । नय के व्यापक क्षेत्र को सुविधा के विचार से निम्नलिखित सात क्षेत्रों में वर्गीकृत किया गया है नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द समभिरूढ़ और एवंभूत नाम के साथ इनके क्रमों का भी महत्त्व है। ये एक दूसरे से तो जुड़े हैं ही पर क्रम से स्थूल से सूक्ष्म या सामान्य से विशिष्टता की ओर बढ़ते जाते हैं । (३६) 100 ga शिरल धर्म धैर्य शुभ ध्यान धर, धी धन धारण हार । जयन्तसेन पुरुष रतन, करत जगत उद्धार ॥ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयों की संख्या, वर्गीकरण व भेद आदि के विचार से कई प्रकार सामने आते है, पर सुविधा की दृष्टि से सर्वमान्य और उपयोगी रूप का ही यहां ग्रहण किया गया है। नैगम नय । सामान्य विशेषाद्यनेक धर्मोपनयनपरोऽध्यवसायो नैगमः । सामान्य और विशेष आदि अनेक धर्मों को ग्रहण करने वाला अभिप्राय नैगम नय कहलाता है । निगम शब्द का शाब्दिक अर्थ है देश, संकल्प और उपचार । उनमें होनेवाले अभिप्राय को नैगमनय कहते हैं। अर्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः । संकल्प का भाव है अभिप्राय या उद्देश्य इसमें जिस उद्देश्य से क्रिया की जा रही है उसीकी प्रधानता दी जाती है। जैसे कोई ईंधन, जल, चावल आदि ले जाते हुए व्यक्ति से पूछे कि वह क्या कर रहा है तो वह कहेगा कि मैं खाना पका रहा हूं । यही दशा लेखक, पाठक आदि की भी हो सकती है। दूसरे रूप में कोई किसी से पूछे कि आप कहाँ रहते हैं और वह उत्तर दे कि मैं लोक में रहता हूं और उस लोक को संकीर्ण करता हुआ अपने घर तक पहुंच जावे । या कोई कहे कि फल लाओ और वह आम या केला या कोई विशिष्ट फल ले आवे । कुछ आचार्यों के मत में दो धर्मी, दो धर्म अथवा एक धर्म और एक धर्मी में प्रधानता और गौणता की विवक्षा करनेवाला कथन, नैगममय माना गया है। संक्षेप में सामान्य व विशेष में कथंचित् तादात्म्य ही नैगम नय का मूलाधार है। संग्रहनय Tapiss TOTIEN सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रह इति । नैगमनय में सामान्य व विशेष दोनों ही अभिप्रेत होते हैं पर संग्रह में केवल सामान्य का ग्रहण किया जाता है। किसी यात्री द्वारा मार्ग पूछे जाने पर जब हम मात्र यह कथन करते हैं कि उस पेड़ के बायें घूम जाना तो हमारा ध्यान इस बात पर नहीं जाता कि पेड़ आम का है या नीम का, यद्यपि पेड़ केवल पेड़ नहीं होता, बड़-पीपल कुछ भी हो सकता है । यही दशा सर्वसामान्य सत् के कथन की है। जब हम कहते हैं कि क्या बढ़िया चीज है, घटना है, दृश्य है तब भी हमारा आशय ऐसे ही सामान्य से होता है। 316 व्यवहार नय इस शब्द को निश्चय नय के विपरीतार्थी व्यवहारनय के प्रसंग में भी प्रयुक्त किया जाता है, पर यहां यह एक विशिष्ट (तकनीकी) अर्थ में ही प्रयुक्त किया जाता है । विशेषात्मकमेवार्थं व्यवहारश्च मन्यते । विशेषाभिनं सामान्यमसत्रय-विषाणवत् । P जब वस्तु के सामान्य गुणों पर ध्यान न देते हुए विशिष्ट गुणों का उल्लेख किया जावे या सामान्य जाति के स्थान पर विशिष्ट वर्ग का उपयोग किया जावे, उस अभिप्राय को व्यवहार नय कहते हैं । जैसे कि जब किसी को फल लाने को कहा जावे और वह आम या केला या फल का और कोई प्रकार ले आवे, जबकि उसे पता है कि आम या केला ही फल नहीं है, ये तो उसके प्रकार मात्र हैं । मी श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण 83 संग्रह नय से जाने हुए पदार्थों में योग्य रीति से विभाग करने को व्यवहारनय कहते हैं। अथवा द्रव्य और पर्याय का वास्तविक भेद जानना व्यवहार नय है । नैगम, संग्रह और व्यवहार को द्रव्यार्थिकनय के सामान्य वर्ग के अन्तर्गत मान लिया गया है क्योंकि ये द्रव्यसंस्पर्शी हैं। इनका सम्बन्ध प्रत्यक्ष या पदार्थ (उसके स्थायीरूप) से है । शेषचार को पर्याय संस्पर्शी कहते हैं क्योंकि वे उसके अस्थायीरूप (रूपान्तरों) से सम्बन्धित हैं। इसीलिए ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत का पर्यायार्थिक नय के अन्तर्गत वर्गीकरण किया गया है । इन चारों में से भी केवल ऋजुसूत्र का पर्याय से सम्बन्ध है । इस सहित प्रथम चार का अर्थ या पदार्थ से सम्बन्ध होने से इन्हें अर्थनय (अर्थतन्त्र) कहते हैं और शेष (अन्तिम) तीन को शब्दनय । ( शब्दतन्त्र) ऋजुसूत्र ऋजुसूत्रः स विज्ञेयो येन पर्यायमात्रकम् । वर्तमानैकसमयविषयं परिगृह्यते ।। ऋजुसूत्र का सम्बन्ध पदार्थ के परिवर्तनशीलरूप से रहता है। अमुक वस्तु अमुक क्षण जैसी दिखाई देती है उसके तत्कालीन उल्लेख को ऋजुसूत्र नय कहा जाता है। जैसे राजा का अभिनय करनेवाले नर को हम उस समय राजा ही कहते हैं। ततः प्रविशति महाराजः । यही दशा विवाह के समय दूल्हे राजा की होती है। शब्दनय यह अन्तिम तीन नयों का सामान्य नाम भी है और उनमेंसे प्रथम का विशिष्ट नाम भी है। यहां उसे इसी दूसरे विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त किया गया है । इसका सम्बन्ध शब्द के पर्यायों (पर्यायवाची शब्दों) से है । तस्मादेक एव पर्यायशब्दानामर्थ इति शब्दः । पर्यावाची शब्द एक दो पदार्थ वाचक हैं। पर इससे भी अधिक इसका भाव यह है कि जो काल, कारक, लिंग, वचन पुरुष और उपसर्ग आदि की भिन्नता के बीच भी शब्द के सामान्य अर्थ को ग्रहण करे। उदाहरण के लिए कुम्भ, कलश, घट मिट्टी से निर्मित एकार्यवाची शब्द हैं। यही दशा इन्द्र, शक्र और पुरन्दर की है । तीनों ही इन्द्र के वाचक हैं। पर व्युत्पत्ति के आधार पर इन्द्र का अर्थ है इन्दते वर्धत इति इन्द्रः शक्नोति इति शक्रः पुर दारयति इति पुरन्दरः समृद्धि के कारण इन्द्र, समर्थ होने से शक और पुर का विदारण करने से पुरन्दर भिन्न भाववाची हैं यहीं समभिरूढनय का अभिप्राय है । जैन सिद्धान्त के अनुसार शब्दारूढोऽर्थोऽथरूदः तथैव पुनः शब्दः । शब्द और अर्थ अन्योन्याश्रित हैं । एक शब्द का एक ही अर्थ और एक अर्थ में एक ही शब्द प्रयुक्त होता है। इसलिए हरेक शब्द का अलग-अलग अर्थ है और पर्यायवाची भी इस नियम से बाहर नहीं हैं। एवंभूतनय यह नय पूर्ववर्ती से एक कदम आगे बढ़ कर बताता है कि पर्यायों के निरुक्ति या व्युत्पत्ति (३७) 00 उचित मुनाफा के सदा, रखे राष्ट्र हित ध्यान । जयन्तसेन मनुज वही, पाता यश वरदान ॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कारण अर्थ तो भिन्न होते ही हैं उनका प्रयोग भी अर्थ या नयों से संगृहीत हो जाते हैं । इनके द्वारा वस्तु की नित्यानित्यता, परिस्थिति के अनुकूल किया जाना चाहिए । उदाहरण के लिए घड़े भेदाभेदता, एकानेकता आदि को सिद्ध किया जा सकता है। का को घट इसीलिए कहते हैं कि वह (पानी भरते समय) घट-घट जब तक उन सभी प्रकार के नयों को नहीं समझा जावे तब करता या गाड़ी में ले जाते समय घड़े घड़-घड़ करते हैं । इसलिए ___ तक अनेकान्तवाद या स्याद्वाद का ठीक आशय समझ में नहीं आ उनके लिए घट या घड़े शब्द का प्रयोग तभी करना चाहिए जब वे सकता । ये नय दृष्टि या स्याद्वाद की आधारशिला हैं। घट-घट या घड़-घड़ करें । इन्द्र को पुरन्दर तभी कहना चाहिए जब प्रसंग पुरों के विदारण का हो । मनुष्य को मनुष्य तभी कहना पदार्थ को ज्ञान, शब्द और अर्थ के आकारों में बांटने का चाहिए जब वह मनन करे या मननशील हो । किसी हत्यारे को तो आधार निक्षेप पद्धति है । अप्रस्तुत का निराकरण करके प्रस्तुत का मानव की बजाय दानव कहना ही सही होगा। बोध कराना, संशय को दूर करना और तत्त्वार्थ का अवधारण करना निक्षेप पद्धति का प्रयोजन है । नाम, स्थापना, द्रव्य और नय निर्विषय न होकर ज्ञान, शब्द या अर्थ किसी न किसी भाव ये निक्षेप के चार भेद हैं । यद्यपि जगत में ठोस और मौलिक को विषय अवश्य करते हैं । इसका विवेक करना ज्ञाता का स्वार्थ अस्तित्व द्रव्य का है परन्तु व्यवहार केवल परमार्थ अर्थ से नहीं है। जैसे कि एक लोकसत् की अपेक्षा एक है, जीव और अजीव चलता । अतः व्यवहार के लिए पदार्थों का निक्षेप शब्द, ज्ञान और के भेद से दो है, द्रव्य, गुण और पर्याय के भेद से तीन, द्रव्य, अर्थ - तीन प्रकारसे किया जाता है | जाति, गुण, द्रव्य, क्रिया क्षेत्र, काल और भावरूप होने से चार, पंच-अस्तिकायों की अपेक्षा आदि निमित्तों की अपेक्षा किये बिना ही इच्छानुसार संज्ञा रखना पांच और जीवादि षद् द्रव्यों की अपेक्षा छह है। नाम कहलाता है। जैसे किसी लड़के का नाम गजराज रखना, यह नय में सापेक्ष दृष्टि रहती है इसीलिए वे सम्यक् ज्ञान के शब्दात्मक अर्थ का आधार है। जिसका नामकरण हो चुका है उस कारण बनते हैं । जो नय निरपेक्षदृष्टिवाले एकान्तवादी, एकपक्षी पदार्थ का उसी के आकार वाली वस्तु में या अतदाकार वस्तु में होते हैं वे मिथ्यानय कहे जाते हैं। स्थापना करना स्थापना निक्षेप है । जैसे हाथी की मूर्ति में हाथी की जैन दर्शन की विचार-सरणि इस प्रकार है कि सम्यक् दर्शन, स्थापना या शतरंज के मुहरे को हाथी कहना । यह ज्ञानात्मक अर्थ ज्ञान और चारित्र मोक्ष के उपाय हैं । 'दर्शन का अर्थ है तत्त्वार्थ में का आधार होता है । अतीत और अनागत पर्याय की योग्यता की श्रद्धा (तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यकदर्शनमा) तत्व या पदार्थों के प्रथम दृष्टिस पदाथ म वह व्यवहार करना द्रव्य निक्षप ह । जस यवराज जीव और अजीव में और अजीव को धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, को राजा कहना या जिसने राजपद छोड़ दिया है उसे भी वर्तमान काल नामक ५ वर्गों में विभाजित किया गया है । इन छह को द्रव्य में राजा कहना । वर्तमान पर्याय की दृष्टि से होने वाला व्यवहार कहते हैं । सत्ता ही द्रव्य का लक्षण है (सद् द्रव्यलक्षणम्) सत् का भाव निक्षेप है । जैसे राज्य करनेवाले को राजा कहना । अर्थ है उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त होना । जो परिवर्तनों के बीच भी स्थिर काम हमारा समस्त व्यवहार कहीं शब्द, कहीं अर्थ और कहीं रहे वही द्रव्य है । द्रव्य के इस दुहरे रूप को समझने के लिए ही स्थापना अर्थात् ज्ञान के सहारे चलता है । या कहा जा सकता है नयवाद या स्याद्वाद की आवश्यकता होती है | द्रव्य का एक कि शब्द ही पदार्थ का ज्ञान प्राप्त कराने में सहायक होते हैं | ज्ञान अंश गुण और पर्यायवाला है जो परिवर्तनशील है, दूसरा मूलांश के साधक के लिये इन शब्दों की सार्थकता वाक्यों में प्रयुक्त होने ध्रुव है । पर गुण और पर्यायों के बिना उसका कोई स्वतंत्र पर ही संभव है। केवल 'घट' या अकेले है' का कोई तात्पर्य अस्तित्व नहीं है । इन दोनो रूपों के सम्बन्धों को जानना नय नहीं, न लाल-पीला से कोई उद्देश्य पूरा होता है । जब कोई कहता दृष्टिका मूलाधार है। पर वस्तु को अकेले ही नहीं देखा जा सकता, है कि यहां एक घड़ा पड़ा है या यह घड़ा. लाल है या लाल और न उसे केवल अस्तित्वरूप में ही देखा जाता है। वस्तु कुछ-कुछ है पीला रंग है, या यह घड़ा लाल नहीं पीला है, हो सकता है यह तो कुछ-कुछ नहीं भी है। वह यदि घट है तो पट नहीं है और पट घड़ा कभी लाल रहा हो पर अभी पीला पड़ गया है । मुझे नहीं है तो घट नहीं है । उस तुलनात्मक दृष्टि को चार अपेक्षाओं से मालूम रंग क्या होता है । आदि वाक्य पदार्थ, घटना, आदि के देखा जा सकता है। विषय में जानकारी देते हैं । इन विविध कथनों को विधि और प्रत्येक द्रव्य का अपना असाधारण स्वरूप होता है । उसका निषेध या इससे परे के आधार पर अकेले या मिश्रित रूप में रखने निजी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव (गुण) होता है, जिनमें उसकी से उनके ७ प्रकार बनते हैं इसीलिए उन्हें सप्तमंगी कहते हैं और सत्ता सीमित रहती है। ये चारों उसके स्वरूप चतुष्टय कहे जाते हर कथन के साथ द्दष्टिभेद सूचक स्यात् शब्द का प्रयोग करने से हैं । प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप चतुष्टय से सत् होता है और पररूप इस सापेक्ष दृष्टि को स्यात् शब्द को लक्ष्य में रखकर स्याद्वाद और चतुष्टय से असत् । जैसे कि बीकानेर में शीतकाल में बना हुआ दृष्टि की सापेक्षता के कारण मिट्टी का काला घड़ा, द्रव्य से मिट्टी का है किन्तु स्वर्ण आदि सापेक्षवाद कहते हैं। यहां प्रधानता अन्यरूप नहीं है । क्षेत्र से बीकानेर में बना हुआ है, दूसरे क्षेत्र का न सात के अंक या प्रकार की है न नहीं है । काल की अपेक्षा शीत ऋतु में बना हुआ है, दूसरी ऋतु में स्यात् शब्द के प्रयोग की । महत्ता निर्मित नहीं है । भाव या गुण की अपेक्षा काले वर्ण का है, लाल उस दृष्टि की है जो इसका मूलाधार आदि वर्णवाला नहीं है। है । नयों के प्रसंग में अनुभव किया गया था कि पदार्थ स्व द्रव्य, क्षेत्र, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये चार अपेक्षाओं के आधार से काल और भाव के विचार से सत् दर्शक वस्तदर्शन करता है। ये चारों द्रव्यार्थिक एवं पयायाथिक और पर दव्य क्षेत्र काल और श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (३८) काटे पेट गरीब का, भरे स्वयं का कोष । जयन्तसेन ऐसा नर, भरे पाप का कोष ।। • Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव के विचार से असत् है । इसी बात को घट-पट आदि पर लागू करके संसार के किसी भी पदार्थ के लिए कहा जा सकता है कि वह एकान्तरूप से न सत् है न असत्, न वर्ण्य हैं न अवर्ण्य । उसे देखने-समझने की अनेक दृष्टियां हैं, अनेक अपेक्षाएं हैं, जिन्हें शब्दों या वाक्यों में समेटना हो तो ऐसे सात वाक्प्रयोग हैं जो समग्ररूप में पदार्थ का सही ज्ञान दे सकते हैं, पर किसी एक पर आग्रह करने से हमारा ज्ञान ही अधूरा नहीं रहता, वह दृष्टि भी दोषपूर्ण बन जाती है। एकत्र जीवादौ वस्तुनि एकैकसत्त्वादि धर्मविषयप्रश्नवशात् अविरोधेन प्रत्यक्षादिबाधापरिहारेण पृथग्भूतयोः समुदितयोश्च विधिनिषेधयोः पर्यालोचनयाकृत्वा स्याच्छब्दलांछितो वक्ष्यमाणः सप्तभिः प्रकारैः वचनविन्यासः सप्तभंगीति गीयते । (मल्लिषेण प्रश्नवशात् एकत्र वस्तुनि अविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी । स्याद्वाद वह सापेक्ष प्रणाली है जिसमें विधि और निषेध अलगअलग या सम्मिलित रूप से किसी वस्तु के धर्म का बिना विरोध के प्रसंगानुसार सातरूप में कथन करते हैं । इसी बात को अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि स्वपर्यायैः परपर्यायैः उमयपर्यायैश्च सद्भावेन, असद्भावेन, उभयेन, चार्पितो विशेषितः कुम्भः कुम्भाकुम्भावक्तंव्योभयरूपादि भेदो भवति - सप्तभंगी प्रतिपाद्यत इत्यर्थः । स्वपर्याय परपर्याय उभयपर्याय के द्वारा सदभाव असदभाव दोनों ही की विशेषता से युक्त कुम्भ, कुम्भ, अकुम्भ, अवक्तव्य के दो (या अधिक) के जोड़ों से कथन ७ प्रकार का या सप्तभंगी रूप में व्यक्त किया जाता है। इसमें प्रधानता अविरोध की है । एक ही वस्तु अपने से भिन्न नहीं हो सकती । वह स्वधर्म को नहीं छोड़ सकती (वत्थुसुहावोधम्मो) पट पट की अपेक्षा से या अपनी विशेषता के कारण अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य के व्यस्त और समस्त एकाधिक या सर्वविध मिश्रण से उसके विषय में कथन सातरूप धारण कर सकता है। सत्ता एक है या अनेक इस बात को निम्न सातरूपों में व्यक्त किया जा सकता है- १. स्यादेकः, २ स्यादनेकः, ३. स्यादेकानेकश्च ४. स्यादवक्तव्यः ५. स्यादेकश्चावक्तव्यः ६. स्यादनेकश्चावक्तव्यः, ७. स्यादेकश्चानेकश्चावक्तव्यश्च । सत्ता के स्थान पर घट शब्द के प्रयोग द्वारा इसी बात को निम्न प्रकार समझा जा सकता है - स्यात् घट है - एक अर्थ में, एक अपेक्षा से शिश घट (घट) है । स्यादस्ति घटः एक अर्थ में घड़ा नहीं है । (स्यात् नास्ति घटः) एक अर्थ में घड़ा है और नहीं है (स्यात् अस्ति नास्ति च घट:) ४. एक अर्थ में घड़ा अवक्तव्य है (स्यात् अवक्तव्यः घटः) एक अर्थ में घड़ा है और अवक्तव्य है (स्यात् अस्ति अवक्तव्यश्च घटः) ६. एक अर्थ में घड़ा नहीं है और अवक्तव्य है (स्यानास्ति अवक्तव्यश्च घटः) एक अर्थ में घड़ा है, नहीं है और अवक्तव्य है (स्यात् अस्तिनास्तिचावक्तव्यश्च घटः). इन कथनों के मूलाधार अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य हैं जिन्हें अकेले, दुकेले और सभी के मिश्रण से ७ ही प्रकार बनते हैं इसीलिए कथन की शैली को सप्तभंगी नाम दिया गया है । स्यात् सर्वत्र अनुगत रहने से इसे स्याद्वाद कहा जाता है । पर मूल भावना अनेकान्त की होने से इस सिद्धान्त को अनेकानतवाद कहा जाता है । अनेकान्त एकान्त का विरोधी शब्द है । सिद्धान्त का अन्त जब एकवादी, हठवादी या एकांगी बन जाता है कि संसार के पदार्थ अनेक धर्मात्मक हैं इसलिए किसी एक धर्म का कथन व्यवहारोपयोगी तो हो सकता है पर यथार्थ की दृष्टि तो जबतक उसके सभी गुणधर्मों का पर्यालोचन नहीं कियाजावे तब तक हमारा कथन सत्यसे परे, अर्धसत्य या सत्य का एकांश ही हो सकता है। इसीबात को लक्ष्य में रखकर हर कथन को सात प्रकार से परखकर सभी के समवेत कथन को सत्य बताया गया है। मोटे रूप में इसे हाथी के अंधों द्वारा स्पर्शज्ञान से प्राप्त किये गये अधूरे ज्ञान के समन्वय से समझा जा सकता है | हाथी अकेले खंभे या सूप जैसा नहीं होकर समग्ररूप से हाथी है । इसी प्रकार पदार्थ स्वरूप से स्वद्रव्यरूप है पर पररूप से पररूप द्रव्य से अभिन्न न होकर भिन्न है और मूलरूप में वाणी का विषय नहीं, दोनों से अवक्तव्य है । पर विवक्षाभेद या प्रसंगानुसार इनमें से किसी एक रूप में ही नहीं । इनके मिलेजुले या सभी के मिश्रित रूप में भी वर्णित किया जा सकता है । ये सभी वर्णन अधूरे होने से अर्धसत्य हैं, पूर्णसत्य तो सभी कथनों की समग्रता में है । यही स्याद्वाद दृष्टि का सार है। एक ही वस्तु भिन्न धर्मा कैसे हो सकती है इसे एक रोचक उदाहरण द्वारा सरलता से समझा जा सकता है - घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पत्ति - स्थितिष्वयम् । शोक प्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ।। तीन व्यक्ति किसी सुनार के पास पहुंच गये । हरेक का उद्देश्य भिन्न था । एक को सोने या चांदी का घड़ा (गिलास) बनवाना था, दूसरा उससे मुकुट बनवाना चाहता था और तीसरा सोने या चांदी की डली चाहता था । सुनार मुकुट को तोड़कर घड़ा बना रहा था इसलिए मुकुट चाहनेवाले को दुःख हुआ कि उसका वांछित मुकुट तोड़ा जा रहा था ? घड़ा या गिलास चाहने वाले को प्रसन्नता हुई कि सुनार उसके उद्देश्य की पूर्ति कर रहा था, पर जिसे सोना-चांदी चाहिए था उसके लिए तो एकही बात थी कि सुनार उसका घड़ा बनावे, मुकुट ही बना रहने दे या दोनों को ही तोड़-फोड़ कर डली में बदले यही अभिप्राय, अपेक्षा, विवक्षा जब शब्दों का जामा पहनकर सामने आती है तो विविधरूपी होने १. (३९) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jan Education International संचित वैभव छल रहित, लक्ष्मी करे निवास । जयन्तसेन घनिक वही, पर की परे आस Ilary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या से सप्तभंगीरूप में प्रकट होती है और क्रमबद्ध सात रंगोंवाले पंखे सामान्य भाषा में समझना हो तो किसी विचित्र, चितकबरे. को घुमाने से सभी का एकरूप सफेद बन जाता है । वही सफेद बहुरंगी, बहुमुखी, विविध स्वादवाले पदार्थ को लेकर उसके बारे में रंग का सूर्य-प्रकाश बरसात में सतरंगीइन्द्र धनुष का रूप धारण किये गये प्रश्नोत्तर से इस दृष्टि से थोड़ा परिचय प्राप्त किया जा कर लेता है और बिखरे रूप में कहीं लाल तो कहीं नीला दिखाई। सकता है । खट्टे-मिट्टे आम को ही लें। क्या वह खट्टा है, नहीं वह देता है। मीठा' भी है, क्या वह मीठा है, हां है पर खट्टा भी है, वह मीठाइसी प्रकार सत्य को देखने की अनेक दृष्टियां हैं। उन सभी खट्टा दोनों है, पर न तो केवल मीठा है न खट्टा । फिर उसका असली स्वाद क्या है? उसे शब्दों से तो कहा नहीं जा सकता कि का समन्वय स्याद्वाद है । संपूणार्थविनिश्चायी, स्याद्वादं श्रुतमुच्यते (न्यायावतार) वह क्या है, क्या नहीं है, वह एक है या अनेक है या मिश्रित रूप में वह क्या है, स्वाद आखिर क्या है, वह आम है या आम का स्याद्वाद का अर्थ है विभिन्न दृष्टिकोणों का पक्षपात रहित । गुण है, पर बिना स्वाद के आम क्या है, जब वह केरी था तब होकर तटस्थ बुद्धि और दृष्टि से समन्वय करना । मीठा नहीं था, कल मीठा बनकर वह खट्टा नहीं रहेगा, फिर मीठे वस्तुस्थिति, व्यक्ति और कर्म की दृष्टि से सापेक्ष होती है। और खट्टे में क्या अन्तर है, क्या वे साथ रह सकते हैं, क्या वे एक प्रसंगानुसार अभीप्सित अर्थ मुख्य और अनभीप्सित गौण हो जाता दूसरे के सहयोगी हैं या रूपान्तर/पर क्या स्वाद को हम आंख से हैं; स्व की अपेक्षा उसके एकरूप की सत्ता होती है, दूसरे की देख सकते हैं, तो स्वाद आम में कहां है, जो दिखाई नहीं देता वह अपेक्षा से उसकी सत्ता नहीं होती और दोनों की अपेक्षा से वह है ऐसा कैसा कहा जा सकता है ? पर आम क्या केवल एकही क्या है इसका वर्णन वाणी से परे होने से अवक्तव्य भी हो सकता रूप का होता है ? उसकी दुनिया भरकी जातियां, रूप-रंग, है। आकार-प्रकार, स्वाद व गंध हैं, उन सबमें सामान्य आम कहां है ? यतो वाचोनिवर्तन्ते अप्राप्य मनसासह । सूरदास ने उसे मन पर उपचारसे तो पूरा पेड़ ही आम है, आम का त्रिआयामी वाणी से अगम-अगोचर कहा है । तुलसी के शब्दों में - केसव, नकलीरूप, चित्र, पर्दे या टी.व्ही. पर प्रदर्शित रूप आम ही तो है, कहि न जादू का कहिये ? देखत तब रचना विचित्र अति, पर उनमें क्या कोई स्वाद है, फिर ये आम कैसे? एक छोटे से समुझिमनहि मन रहिये । कुछ ने इसे गूंगे का गुड़ बताया है। आकार से लेकर किलोभर के, लम्बे, पतले, मोटे सभी में आम्रत्व कहां है, राम की रामता की तरह आम की आमता कहां है ? स्याद्वाद का शास्त्रीय प्रणेता चाहे किसी काल या क्षेत्र से बंधा हो उसका व्यावहारिक रूप तो वैदिक काल में भी परिचित ऐसे एक नहीं अनेक प्रश्न आम के बारे में पूछे जा सकते हैं था, जब सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व की अवस्था के लिए कहा गया और ज्यों ज्यों उत्तर खोजते या पदार्थ को जानने का प्रयास करते था - नअसद् आसीत्, नो सद् आसीत् तदानीम् । तब न असत् था। हैं बुद्धि चकराने लगती है, शब्द छोटे पड़ जाते हैं, वर्णन अधूरे रह न सत् ही था, वह तो अप्रतीक - प्रतीक, चिन्ह या संकेत रहित जाते हैं, मन भ्रम में पड़ जाता है और बोलचाल की भाषा में - है था शब्दातीत था । किसे मालूम कि वह क्या था ? कहूं तो है नहीं, नहीं कहूं तो है । इन दोनों के बीच में कुछ न कुछ तो है । इसीसे सन्तोष करना पड़ता है। ऐसे ही प्रश्नों, इसी प्रकार मिट्टी, जल आदि के विवों (पर्यायों) को जिज्ञासाओं या शंकाओं की समाधानकारक दृष्टि को स्याद्वाद, समझाने के लिए कहा गया है - वाचारमणं विकारो नामधेयं अनेकान्तवाद या कथन को सप्तभंगी कहा जाता है। मृत्तिकेत्येव सत्यम् । (छांदोग्य) यह संसार नामरूपात्मक है । मूल रूप में अव्याकृत है - तद्धेदं तयव्याकृतमासीत् तन्नामरूपाभ्यामेव विज्ञान के क्षेत्र में जाकर तो हमारी दृष्टि और भी चकरा व्याक्रियत (वृहदारण्यक) जाती है | विज्ञान ने सारी सृष्टि को छान मारा है | वह मोटे से लगाकर छोटे तक का, स्थूल से सूक्ष्म और ब्रह्माण्ड से परमाणु तक बुद्ध ने इसे विभाज्यवाद का नाम दिया था । पर माध्यमिकों सभी का पर्यवेक्षण, परीक्षण, विश्लेषण और वर्गीकरण करके कुछ या शून्यवादियों ने तो सबकुछ को नकारते हुए सर्वशून्य बना दिया। सामान्य गुणों, तथ्यों या नियमों को जानने का प्रयास करता है, अतस्तत्त्वं सदसदुभयात्मक चतुष्कोटिविनिर्मुक्तम् (नागार्जुन) प्रकाशानन्द वह दुनिया भर की चीजों में भिन्नता और अभिन्नता खोजता हुआ ने इस संसार को मन की उपज बता कर दृष्टिसृष्टिवाद के रूप में स्थूल पदार्थ से परमाणु को भी खण्डित करके मूल १०५ तत्त्वों को समझाने का प्रयास किया तो बर्कले के लेटिन उक्ति percipi भी तरंग-दैर्घ्य में परिवर्तित करके इनका भी मूलाधार दिक्काल या अस्तित्व का अर्थ है दर्शन, मन का प्रक्षेप | यह संसार वही है सातत्य अथवा आकाशीय वक्रता द्वारा समझाने का प्रयास करता जैसा हम उसे देखते या देख पाते हैं, वह तभी तक है जबतक हम वह पदार्थ को कर्जा और कर्जा देखते हैं और जब हम नहीं देखते तो ईश्वर उसे देखता है, पर को तरंगों में बदलते बदलते एक कोई देखनेवाला नहीं रहे तो यह संसार भी नहीं रहेगा | मुंदिगइ से संसार में पहुंच जाता है जहां आंखें, फिर लाखें केहि काम की । आप मरे जग पर जाय । पदार्थ नहीं घटनाएं हैं, क्रियाएं हैं, एक छोर पर ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या, नेह नानास्ति किंचन । गति है, परिवर्तनशीलता है, पर वह ब्रह्मैक्य और दूसरे छोर पर सर्व शून्यं के रूप में पूर्णतः अभाव, किसमें है, कहां है, क्यों है आदि उन दोनों को एक में समेट ने का प्रयास ही स्याद्वाद है। का पता ही नहीं लग पाता । __ इसके आधुनिक पदार्थवादी रूप को समझने का प्रयास भी अप्रासंगिक नहीं होगा। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (४०) सभी कला में श्रेष्ठ है, जीवन कलाविचार । जयन्तसेन घनिक वही, पर की परे आस || Vanenbrary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयोग से विज्ञान के इस दृष्टिकोण को भी हमने सापेक्षवाद उसने इन सभी को मिलाकर विश्व को सापेक्ष्य बना दिया है और नाम दे दिया है और इस रूप में वह स्याद्वाद का समानार्थी। इनकी वक्रता व साधनता-विरलता को ऊर्जा का, ऊर्जा को पदार्थों दिखाई देता है, पर ये दोनों दृष्टियां मूल में एक होकर भी विस्तार का, इस भरे पूरे संसार का रूप बताकर रूपाकार को सापेक्षता का में नितान्त भिन्न हैं। एरिंगटन के शब्दों में - मूलाधार बना दिया है। bothi The relativelity theory of physics reduces Troजब संसार इस प्रकार का सापेक्ष दृश्य है तो द्रष्टा इसे कैसे everything to relation, that is to say. It is structure. समझे? ये दृश्य क्षणक्षण परिवर्तनशील तो हैं ही मनुष्य की पकड़ not material, which counts. The structure cannot से भी परे हैं । व्हाइटेद के शब्दों में you cannot recognise be built up without material, but the nature of the an event, because when it is gone, it is gone. BH material is of no importance. घटना (परिवर्तन, परिणाम, विवत) को नहीं पहचान सकते क्यों मायभौतिकी का सापेक्षवाद सिद्धान्त हर चीज को सम्बन्ध कि एक बार बीता कि वह सदा के लिए अतीत बन जाता है, (अपेक्षा) में बदल देता है, अर्थात् वहां महत्त्व पदार्थ का नहीं हमारी पकड़ से बाहर पहुंच जाता है । और तो और हम परमाणु संरचना का है । यद्यपि संरचना, बिना पदार्थ के नहीं की जा में इलेक्ट्रान की गति व स्थिति का पता नहीं लगा सकते क्योंकि सकती परन्तु वहां भी महत्त्व पदार्थ की प्रकृति का नहीं होता। गति नापते हैं तो स्थिति बदल जाती है और स्थिति को छूते हैं तो गति गड़बड़ा जाती है । यही दशा प्रकाश के तरंगमयरूप की है । केसिपस कायजर के अनुसार होने (अस्तित्व) का अर्थ है क्वान्टम वाद के अनुसार प्रकाश कोरी तरंगों के रूप में नहीं आता सम्बद्ध या सापेक्ष होना । To be is to be related. प्वांकेट के प्रकाश के पेकेट के रूप में आता है। अनुसार Science, in other words, in a system of relations. विज्ञान ने मूल तत्त्वोंकी संख्या भले ही १०५ तक सदृश्य में द्रष्टा की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है | आइन्स्टाइन पहुंचा दी हो, पर ये १०० कौरव और ५ पांडवों की तरह ने समय की सापेक्षता को सुख-दुःख की अनुभूति के अनुसार महाभारत के पात्र नहीं हैं, ये सब जिन अणुओं से बने हैं उनका (उनकी अपेक्षासे) घटता-बढ़ता दिखाया है, पर विज्ञान तो निरपेक्ष अन्तिम रूप ऊर्जा है । हर पदार्थ न केवल ऊर्जा है अपितु हर तथ्यों तक पहुंचने का प्रयास करता है । पर सापेक्षता तो यहां भी पदार्थ को ऊर्जा में बदला जा सकता है और हर प्रकार की ऊर्जा पीछा नहीं छोड़ती । समय की सापेक्षता व्यक्तिगत ही नहीं का पदाथ में रूपान्तरित किया जा सकता है. यहां तक कि जिन पदाथगत भा ह, मानसिक ही नहीं भौतिक भी है. इस तथ्य को ऊष्मा, प्रकाश, विद्युत-चुम्बकत्व आदि को हम अलग-अलग देखते इस बात से समझा जा सकता है कि अपनी गति में निरपेक्ष प्रकाश हैं वे भी एक दूसरे में रूपान्तरित किये जा सकते हैं । संसार ऊर्जा (किरणे) सूर्य से हम तक तत्काल नहीं पहुंचती, उन्हें पृथ्वी तक का रूपान्तरण है पर न तो ऊर्जा नये सिरेसे बनाई जा सकती है न उतरने में ८ मिनट से अधिक लगते हैं । कुछ आकाशगंगाओं या विद्यमान ऊर्जा का कभी किसी प्रकार अन्त होता है । अतः यहां तारों से हम तक पहुंचने में उसे लाखों वर्ष लग जाते हैं । इसका भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लागू होता है कि पदार्थ में परिवर्तन होता है अर्थ यह हुआ कि उनका जो रूप हम आज देखते हैं वह लाखों पर कुछ मौलिक तत्त्व शाश्वत बना रहता है। वर्ष पहले का है । इस बीच वे पदार्थ नष्ट भी हो गये तब भी वे उसी क्रम में हमें दिखाई देते रहेंगे और दूरी के अनुपात में इतने हमारी सामान्य दृष्टि में तो पदार्थ को रहने के लिए स्थान समयतक उनका अस्तित्व बना रहेगा | इस प्रकार समय स्थान या चाहिए और बदलने के लिए समय, पर वैज्ञानिक सापेक्षवाद ने तो दूरी के सापेक्ष है, समकालीनता जैसी वस्तु नहीं होती वैसे ही जैसे इन दोनों का मिश्रण बना दिया है । मिंकोवस्की के शब्दों में पदार्थ की स्वतन्त्रता सत्ता है वह दूसरों से तदाकार भले ही हो Space by itself and time by itself. or doomed तादात्य नहीं होती । इस तादात्य या आइडेन्टिटीने ही अपेक्षा का to fade away into more shadows, and only a kind उपहास किया है जिसकी विस्थापना का प्रयास वर्तमान विज्ञान का of union of the two will proserve an independent लक्ष्य है। reality. इस क्षेत्र में सबसे बड़ी बाधा भाषा द्वारा उपस्थित की जाती अकेले आकाश या दिक् और अकेले काल को परछाइयों में है। संसार को जानने का माध्यम हमारा मन तो है ही, पर बिना बदलना होगा, स्वतन्त्र सत्ता तो इनके एक प्रकार के संयोग की भाषा के वह लंगड़ा है । पर भाषा का सहारा लेते ही वह इतना होगी। जिसे दिक्काल कहा जा सकता है। परन्त आइन्स्टाइन ने पराधीन हो जाता है कि उसे बार-बार सावधान करना पड़ता है कि तो इस मिश्रण के मूलाधार ईश्वर को ही गायब कर दिया है | For भाषा या शब्द संसार या पदार्थ नहीं Einsstein, 'space-time' is, semantically, 'fulness', 'not हैं | आम शब्द आम पदार्थ का emptiness', and, in his language. he does not need स्थान नहीं ले सकता । कोई भी any term like 'ether' of astins 'plenum' 'structurally. शब्द आपका पूरा या यथार्थ वर्णन covers the ground. आइन्स्टाइन के लिए दिक्काल का अर्थ है नहीं कर सकते । एडिंगटन के परिपूर्णता, रिक्तता (शून्य) नहीं परिपूर्णता की संरचना ही उसके अनुसार - मूलाधार का काम दे देती है अतः उसे न ईश्वर की आवश्यकता है । We cannot describe न दिशा के तीन और काल के एक अलग-अलग आयामों की । substance, we can only (४१) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण सभी कला में श्रेष्ठ है, जीवन कलाविचार जयन्तसेन रहे सदा, उन का शुध्दाचार |Lrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ give aname to it. Any attempt to do more than कठिन है। ऊपर इसके केवल वर्णनात्मक रूप का स्पर्श किया गया give aname leads at once to an attribution of है / तुलनात्मक रूप में तो विषय और भी जटिल हो जाता | पर structure. But structure can be described to some वर्णनात्मक रूप के विस्तार को ही देखें तो भेद और उपभेदों, extent, and when reduced to ultimate terms it विचारों की शाखाओं प्रशाखाओं, भारतीय विचारधारा के परिप्रेक्ष्य appears to resolve itself into a complex of relations में सापेक्षवाद के प्रादुर्भाव और विकास तथा पश्चिमी विचारधारा में ... A law of nature resolves itself into a constant आध्यात्मिकता से भौतिकता और वस्तुवादी यथार्थ की यात्रा बड़ी relation. लम्बी है। हम पदार्थ का वर्णन नहीं कर सकते, हम केवल उसे नाम विभिन्न विरोधी विचारधाराओंका जैसा समन्वय सापेक्षवाद ने पद या संज्ञा प्रदान कर सकते हैं / इससे अधिक करने का अर्थ है किया, यहां तक कि अपने अनेकान्तवाद सिद्धान्त को स्वयं उसकी संरचना का उल्लेख करना / एक सीमा तक संरचना का अनेकांतवाद पर लागू करने से पीछे नहीं हटे वर्णन किया भी जा सकता है पर अन्तिम पदोंतक पहुंचने का अर्थ (अनेकान्तवादोऽप्यनेकान्तात्मकः), वैसाही प्रयास अध्यात्मवादी हो जाता है संबंधों का संकुल / ... प्रकृति के नियम का अर्थ है अनेकान्त या सापेक्षवाद का भौतिकवादी सम्बन्धवाद या सापेक्षवाद ऐसे स्थायी सम्बन्धों की खोज / से करने की युगीन मांग की पूर्ति करना ही किसी पुरातनवाद को पेवस बार्न के शब्दों में Beyond the bounds of नवीन परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का उद्देश्य होना चाहिए। science, too, objective and relative reflaction is a पर यह किसी विस्तृत ग्रंथ का विषय हो सकता है, साधारण gain, a release from prejudice, a liberation of the लेख या रचना का नहीं / प्रसंगानुसार इसपर विचार करने का spirit from standards whose claim to absolute valicity अवसर मिला / इसमें स्याद्वाद पर लिखने की अपेक्षा सीखने का melts away before the critical judgement of the प्रयास अधिक किया गया है / लेख को लिखने में विविध स्रोतोंका relations. उपयोग किया गया है, पर प्रधानता दो ग्रंथों की है - विज्ञान की सीमा के बाहर भी भौतिक और सापेक्ष विचार स्याद्वाद सिद्धान्त - एक अनुशीलन आचार्य श्री आनन्दऋषिजी, लाभप्रद ही हैं, उनसे पक्षपात से छुटकारा मिलता है और आत्मा तथा Jaina theories of Reality and Knowledge : Dr.Y. ऐसे प्रतिमानों से मुक्त हो जाती है जिनका निरपेक्ष प्रामाणिकता का J. Padmarajan. दावा एस सापेक्षवादा के आलोचनात्मक निणय के सामन पिघल कोर्जीबस्की की पुस्तक साइंस एंड सेनिटी ने जाता (लुप्त हो जाता) है। वैज्ञानिक सापेक्षवाद को समझाने में विशेष सापेक्षवाद का क्षेत्र बड़ा विस्तृत व्यापक है, साथ ही वह सहायता की है। इतना गम्भीर व जटिल है कि उसे थोड़े शब्दों में समेट पाना बड़ा मधुकर-मौक्तिक हमारे जीवन में कई प्रकार के चक्र हैं। दुनिया का हक, बातों का चक्र, धंधे का चक्र और एक-दूसरे को आगे-पीछे धकेलने का चक्र चक्र के सिवाय और हम हैं ही कहाँ ? हमारा जीवन इन चक्रों से मुक्त होना चाहिये। इन सब चक्करों का मूल कारण है कर्म-चक्र, अतः इन दुश्चक्रों से मुक्त होने के लिए कर्म-चक्र से छूटना पड़ेगा; और कर्म-चक्र को यदि रोकना है, तो जीवन में धर्म-चक्र को अंगीकार करना पड़ेगा। यदि धर्म-चक्र हाथ में होगा तो कर्म-चक्र पीछे हटने लगेगा और फिर यह धर्म-चक्र हमारे जीवन में सुस्थिर हो जाएगा। जिसने धर्म-चक्र को पा लिया, उसे सिद्ध-चक्र तक पहुँचने में समय नहीं लगेगा और उसकी राह में कोई बाधा भी निर्मित नहीं होगी। हमें सिद्ध-चक्र तक पहुँचना है / सिद्ध-चक्र में केवल सीधापन है। वहाँ किसी प्रकार की बाँक नहीं है / सीधेपन से युक्त और चक्र से मुक्त जो स्थिति है, उसे सिद्ध-चक्र कहते हैं। यदि आप सीधेपन में आना चाहते हैं और अपने जीवन को चक्र-मुक्त रखना चाहते हैं, तो फिर जरा गौर से अपने जीवन-मूल्यों को समझते जाइये / उनको समझने के बाद आप अपना जीवन स्तर ऊँचा उठा सकेंगे और उज्ज्वलतर बन सकेंगे। -जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि मधुकर हमारा जीवन-पथ कितना लम्बा है; हमें नहीं मालूम / कितनी लम्बी अपनी जीवन-स्थिति है, नहीं मालूम | अरे, हमें तो इस जीवन का भी पता नहीं है। हमें यह भी मालूम नहीं है कि हमारा यह मूल्यवान जीवन किस प्रकार बीत रहा है. हम होश में हैं ही कहाँ ? मोह महामद पियो अनादि, भूलि आपकू भरमत वादि / हमने तो मोह की तेज शराब पीने की आदत बना डाली है और इसीलिए हम अपने आपको को भूल कर इस संसार-चक्र में व्यर्थ भटक रहे हैं। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि मधुकर श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (42) मातृभूमि अरु धर्म की रखता है जो शान | जयन्तसेन जग में वह, पाता पूजा मान ||ord