________________
के कारण अर्थ तो भिन्न होते ही हैं उनका प्रयोग भी अर्थ या नयों से संगृहीत हो जाते हैं । इनके द्वारा वस्तु की नित्यानित्यता, परिस्थिति के अनुकूल किया जाना चाहिए । उदाहरण के लिए घड़े भेदाभेदता, एकानेकता आदि को सिद्ध किया जा सकता है। का को घट इसीलिए कहते हैं कि वह (पानी भरते समय) घट-घट
जब तक उन सभी प्रकार के नयों को नहीं समझा जावे तब करता या गाड़ी में ले जाते समय घड़े घड़-घड़ करते हैं । इसलिए
___ तक अनेकान्तवाद या स्याद्वाद का ठीक आशय समझ में नहीं आ उनके लिए घट या घड़े शब्द का प्रयोग तभी करना चाहिए जब वे
सकता । ये नय दृष्टि या स्याद्वाद की आधारशिला हैं। घट-घट या घड़-घड़ करें । इन्द्र को पुरन्दर तभी कहना चाहिए जब प्रसंग पुरों के विदारण का हो । मनुष्य को मनुष्य तभी कहना
पदार्थ को ज्ञान, शब्द और अर्थ के आकारों में बांटने का चाहिए जब वह मनन करे या मननशील हो । किसी हत्यारे को तो
आधार निक्षेप पद्धति है । अप्रस्तुत का निराकरण करके प्रस्तुत का मानव की बजाय दानव कहना ही सही होगा।
बोध कराना, संशय को दूर करना और तत्त्वार्थ का अवधारण
करना निक्षेप पद्धति का प्रयोजन है । नाम, स्थापना, द्रव्य और नय निर्विषय न होकर ज्ञान, शब्द या अर्थ किसी न किसी
भाव ये निक्षेप के चार भेद हैं । यद्यपि जगत में ठोस और मौलिक को विषय अवश्य करते हैं । इसका विवेक करना ज्ञाता का स्वार्थ
अस्तित्व द्रव्य का है परन्तु व्यवहार केवल परमार्थ अर्थ से नहीं है। जैसे कि एक लोकसत् की अपेक्षा एक है, जीव और अजीव
चलता । अतः व्यवहार के लिए पदार्थों का निक्षेप शब्द, ज्ञान और के भेद से दो है, द्रव्य, गुण और पर्याय के भेद से तीन, द्रव्य,
अर्थ - तीन प्रकारसे किया जाता है | जाति, गुण, द्रव्य, क्रिया क्षेत्र, काल और भावरूप होने से चार, पंच-अस्तिकायों की अपेक्षा
आदि निमित्तों की अपेक्षा किये बिना ही इच्छानुसार संज्ञा रखना पांच और जीवादि षद् द्रव्यों की अपेक्षा छह है।
नाम कहलाता है। जैसे किसी लड़के का नाम गजराज रखना, यह नय में सापेक्ष दृष्टि रहती है इसीलिए वे सम्यक् ज्ञान के शब्दात्मक अर्थ का आधार है। जिसका नामकरण हो चुका है उस कारण बनते हैं । जो नय निरपेक्षदृष्टिवाले एकान्तवादी, एकपक्षी पदार्थ का उसी के आकार वाली वस्तु में या अतदाकार वस्तु में होते हैं वे मिथ्यानय कहे जाते हैं।
स्थापना करना स्थापना निक्षेप है । जैसे हाथी की मूर्ति में हाथी की जैन दर्शन की विचार-सरणि इस प्रकार है कि सम्यक् दर्शन,
स्थापना या शतरंज के मुहरे को हाथी कहना । यह ज्ञानात्मक अर्थ ज्ञान और चारित्र मोक्ष के उपाय हैं । 'दर्शन का अर्थ है तत्त्वार्थ में
का आधार होता है । अतीत और अनागत पर्याय की योग्यता की श्रद्धा (तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यकदर्शनमा) तत्व या पदार्थों के प्रथम दृष्टिस पदाथ म वह व्यवहार करना द्रव्य निक्षप ह । जस यवराज जीव और अजीव में और अजीव को धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल,
को राजा कहना या जिसने राजपद छोड़ दिया है उसे भी वर्तमान काल नामक ५ वर्गों में विभाजित किया गया है । इन छह को द्रव्य
में राजा कहना । वर्तमान पर्याय की दृष्टि से होने वाला व्यवहार कहते हैं । सत्ता ही द्रव्य का लक्षण है (सद् द्रव्यलक्षणम्) सत् का
भाव निक्षेप है । जैसे राज्य करनेवाले को राजा कहना । अर्थ है उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त होना । जो परिवर्तनों के बीच भी स्थिर काम हमारा समस्त व्यवहार कहीं शब्द, कहीं अर्थ और कहीं रहे वही द्रव्य है । द्रव्य के इस दुहरे रूप को समझने के लिए ही स्थापना अर्थात् ज्ञान के सहारे चलता है । या कहा जा सकता है नयवाद या स्याद्वाद की आवश्यकता होती है | द्रव्य का एक कि शब्द ही पदार्थ का ज्ञान प्राप्त कराने में सहायक होते हैं | ज्ञान अंश गुण और पर्यायवाला है जो परिवर्तनशील है, दूसरा मूलांश के साधक के लिये इन शब्दों की सार्थकता वाक्यों में प्रयुक्त होने ध्रुव है । पर गुण और पर्यायों के बिना उसका कोई स्वतंत्र पर ही संभव है। केवल 'घट' या अकेले है' का कोई तात्पर्य अस्तित्व नहीं है । इन दोनो रूपों के सम्बन्धों को जानना नय नहीं, न लाल-पीला से कोई उद्देश्य पूरा होता है । जब कोई कहता दृष्टिका मूलाधार है। पर वस्तु को अकेले ही नहीं देखा जा सकता, है कि यहां एक घड़ा पड़ा है या यह घड़ा. लाल है या लाल और न उसे केवल अस्तित्वरूप में ही देखा जाता है। वस्तु कुछ-कुछ है पीला रंग है, या यह घड़ा लाल नहीं पीला है, हो सकता है यह तो कुछ-कुछ नहीं भी है। वह यदि घट है तो पट नहीं है और पट घड़ा कभी लाल रहा हो पर अभी पीला पड़ गया है । मुझे नहीं है तो घट नहीं है । उस तुलनात्मक दृष्टि को चार अपेक्षाओं से मालूम रंग क्या होता है । आदि वाक्य पदार्थ, घटना, आदि के देखा जा सकता है।
विषय में जानकारी देते हैं । इन विविध कथनों को विधि और प्रत्येक द्रव्य का अपना असाधारण स्वरूप होता है । उसका
निषेध या इससे परे के आधार पर अकेले या मिश्रित रूप में रखने निजी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव (गुण) होता है, जिनमें उसकी
से उनके ७ प्रकार बनते हैं इसीलिए उन्हें सप्तमंगी कहते हैं और सत्ता सीमित रहती है। ये चारों उसके स्वरूप चतुष्टय कहे जाते
हर कथन के साथ द्दष्टिभेद सूचक स्यात् शब्द का प्रयोग करने से हैं । प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप चतुष्टय से सत् होता है और पररूप
इस सापेक्ष दृष्टि को स्यात् शब्द को लक्ष्य में रखकर स्याद्वाद और चतुष्टय से असत् । जैसे कि बीकानेर में शीतकाल में बना हुआ
दृष्टि की सापेक्षता के कारण मिट्टी का काला घड़ा, द्रव्य से मिट्टी का है किन्तु स्वर्ण आदि
सापेक्षवाद कहते हैं। यहां प्रधानता अन्यरूप नहीं है । क्षेत्र से बीकानेर में बना हुआ है, दूसरे क्षेत्र का
न सात के अंक या प्रकार की है न नहीं है । काल की अपेक्षा शीत ऋतु में बना हुआ है, दूसरी ऋतु में
स्यात् शब्द के प्रयोग की । महत्ता निर्मित नहीं है । भाव या गुण की अपेक्षा काले वर्ण का है, लाल
उस दृष्टि की है जो इसका मूलाधार आदि वर्णवाला नहीं है।
है । नयों के प्रसंग में अनुभव किया
गया था कि पदार्थ स्व द्रव्य, क्षेत्र, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये चार अपेक्षाओं के आधार से
काल और भाव के विचार से सत् दर्शक वस्तदर्शन करता है। ये चारों द्रव्यार्थिक एवं पयायाथिक और पर दव्य क्षेत्र काल और
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
(३८)
काटे पेट गरीब का, भरे स्वयं का कोष । जयन्तसेन ऐसा नर, भरे पाप का कोष ।।
www.jainelibrary.org
Jain Education International
•
For Private & Personal Use Only