Book Title: Syadvad Drushti Author(s): Shivnarayan Gaud Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf View full book textPage 6
________________ स्या से सप्तभंगीरूप में प्रकट होती है और क्रमबद्ध सात रंगोंवाले पंखे सामान्य भाषा में समझना हो तो किसी विचित्र, चितकबरे. को घुमाने से सभी का एकरूप सफेद बन जाता है । वही सफेद बहुरंगी, बहुमुखी, विविध स्वादवाले पदार्थ को लेकर उसके बारे में रंग का सूर्य-प्रकाश बरसात में सतरंगीइन्द्र धनुष का रूप धारण किये गये प्रश्नोत्तर से इस दृष्टि से थोड़ा परिचय प्राप्त किया जा कर लेता है और बिखरे रूप में कहीं लाल तो कहीं नीला दिखाई। सकता है । खट्टे-मिट्टे आम को ही लें। क्या वह खट्टा है, नहीं वह देता है। मीठा' भी है, क्या वह मीठा है, हां है पर खट्टा भी है, वह मीठाइसी प्रकार सत्य को देखने की अनेक दृष्टियां हैं। उन सभी खट्टा दोनों है, पर न तो केवल मीठा है न खट्टा । फिर उसका असली स्वाद क्या है? उसे शब्दों से तो कहा नहीं जा सकता कि का समन्वय स्याद्वाद है । संपूणार्थविनिश्चायी, स्याद्वादं श्रुतमुच्यते (न्यायावतार) वह क्या है, क्या नहीं है, वह एक है या अनेक है या मिश्रित रूप में वह क्या है, स्वाद आखिर क्या है, वह आम है या आम का स्याद्वाद का अर्थ है विभिन्न दृष्टिकोणों का पक्षपात रहित । गुण है, पर बिना स्वाद के आम क्या है, जब वह केरी था तब होकर तटस्थ बुद्धि और दृष्टि से समन्वय करना । मीठा नहीं था, कल मीठा बनकर वह खट्टा नहीं रहेगा, फिर मीठे वस्तुस्थिति, व्यक्ति और कर्म की दृष्टि से सापेक्ष होती है। और खट्टे में क्या अन्तर है, क्या वे साथ रह सकते हैं, क्या वे एक प्रसंगानुसार अभीप्सित अर्थ मुख्य और अनभीप्सित गौण हो जाता दूसरे के सहयोगी हैं या रूपान्तर/पर क्या स्वाद को हम आंख से हैं; स्व की अपेक्षा उसके एकरूप की सत्ता होती है, दूसरे की देख सकते हैं, तो स्वाद आम में कहां है, जो दिखाई नहीं देता वह अपेक्षा से उसकी सत्ता नहीं होती और दोनों की अपेक्षा से वह है ऐसा कैसा कहा जा सकता है ? पर आम क्या केवल एकही क्या है इसका वर्णन वाणी से परे होने से अवक्तव्य भी हो सकता रूप का होता है ? उसकी दुनिया भरकी जातियां, रूप-रंग, है। आकार-प्रकार, स्वाद व गंध हैं, उन सबमें सामान्य आम कहां है ? यतो वाचोनिवर्तन्ते अप्राप्य मनसासह । सूरदास ने उसे मन पर उपचारसे तो पूरा पेड़ ही आम है, आम का त्रिआयामी वाणी से अगम-अगोचर कहा है । तुलसी के शब्दों में - केसव, नकलीरूप, चित्र, पर्दे या टी.व्ही. पर प्रदर्शित रूप आम ही तो है, कहि न जादू का कहिये ? देखत तब रचना विचित्र अति, पर उनमें क्या कोई स्वाद है, फिर ये आम कैसे? एक छोटे से समुझिमनहि मन रहिये । कुछ ने इसे गूंगे का गुड़ बताया है। आकार से लेकर किलोभर के, लम्बे, पतले, मोटे सभी में आम्रत्व कहां है, राम की रामता की तरह आम की आमता कहां है ? स्याद्वाद का शास्त्रीय प्रणेता चाहे किसी काल या क्षेत्र से बंधा हो उसका व्यावहारिक रूप तो वैदिक काल में भी परिचित ऐसे एक नहीं अनेक प्रश्न आम के बारे में पूछे जा सकते हैं था, जब सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व की अवस्था के लिए कहा गया और ज्यों ज्यों उत्तर खोजते या पदार्थ को जानने का प्रयास करते था - नअसद् आसीत्, नो सद् आसीत् तदानीम् । तब न असत् था। हैं बुद्धि चकराने लगती है, शब्द छोटे पड़ जाते हैं, वर्णन अधूरे रह न सत् ही था, वह तो अप्रतीक - प्रतीक, चिन्ह या संकेत रहित जाते हैं, मन भ्रम में पड़ जाता है और बोलचाल की भाषा में - है था शब्दातीत था । किसे मालूम कि वह क्या था ? कहूं तो है नहीं, नहीं कहूं तो है । इन दोनों के बीच में कुछ न कुछ तो है । इसीसे सन्तोष करना पड़ता है। ऐसे ही प्रश्नों, इसी प्रकार मिट्टी, जल आदि के विवों (पर्यायों) को जिज्ञासाओं या शंकाओं की समाधानकारक दृष्टि को स्याद्वाद, समझाने के लिए कहा गया है - वाचारमणं विकारो नामधेयं अनेकान्तवाद या कथन को सप्तभंगी कहा जाता है। मृत्तिकेत्येव सत्यम् । (छांदोग्य) यह संसार नामरूपात्मक है । मूल रूप में अव्याकृत है - तद्धेदं तयव्याकृतमासीत् तन्नामरूपाभ्यामेव विज्ञान के क्षेत्र में जाकर तो हमारी दृष्टि और भी चकरा व्याक्रियत (वृहदारण्यक) जाती है | विज्ञान ने सारी सृष्टि को छान मारा है | वह मोटे से लगाकर छोटे तक का, स्थूल से सूक्ष्म और ब्रह्माण्ड से परमाणु तक बुद्ध ने इसे विभाज्यवाद का नाम दिया था । पर माध्यमिकों सभी का पर्यवेक्षण, परीक्षण, विश्लेषण और वर्गीकरण करके कुछ या शून्यवादियों ने तो सबकुछ को नकारते हुए सर्वशून्य बना दिया। सामान्य गुणों, तथ्यों या नियमों को जानने का प्रयास करता है, अतस्तत्त्वं सदसदुभयात्मक चतुष्कोटिविनिर्मुक्तम् (नागार्जुन) प्रकाशानन्द वह दुनिया भर की चीजों में भिन्नता और अभिन्नता खोजता हुआ ने इस संसार को मन की उपज बता कर दृष्टिसृष्टिवाद के रूप में स्थूल पदार्थ से परमाणु को भी खण्डित करके मूल १०५ तत्त्वों को समझाने का प्रयास किया तो बर्कले के लेटिन उक्ति percipi भी तरंग-दैर्घ्य में परिवर्तित करके इनका भी मूलाधार दिक्काल या अस्तित्व का अर्थ है दर्शन, मन का प्रक्षेप | यह संसार वही है सातत्य अथवा आकाशीय वक्रता द्वारा समझाने का प्रयास करता जैसा हम उसे देखते या देख पाते हैं, वह तभी तक है जबतक हम वह पदार्थ को कर्जा और कर्जा देखते हैं और जब हम नहीं देखते तो ईश्वर उसे देखता है, पर को तरंगों में बदलते बदलते एक कोई देखनेवाला नहीं रहे तो यह संसार भी नहीं रहेगा | मुंदिगइ से संसार में पहुंच जाता है जहां आंखें, फिर लाखें केहि काम की । आप मरे जग पर जाय । पदार्थ नहीं घटनाएं हैं, क्रियाएं हैं, एक छोर पर ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या, नेह नानास्ति किंचन । गति है, परिवर्तनशीलता है, पर वह ब्रह्मैक्य और दूसरे छोर पर सर्व शून्यं के रूप में पूर्णतः अभाव, किसमें है, कहां है, क्यों है आदि उन दोनों को एक में समेट ने का प्रयास ही स्याद्वाद है। का पता ही नहीं लग पाता । __ इसके आधुनिक पदार्थवादी रूप को समझने का प्रयास भी अप्रासंगिक नहीं होगा। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (४०) सभी कला में श्रेष्ठ है, जीवन कलाविचार । जयन्तसेन घनिक वही, पर की परे आस || Vanenbrary.org Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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