Book Title: Swarup Sadhna ka Marg Yoga evam Bhakti
Author(s): Sushil Kumar
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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Page 4
________________ ७६ स्वरूप-साधना का मार्ग : योग एवं भक्ति : आचार्य श्री मुनि सुशीलकुमार जी देर तक बैठने का अभ्यास बढ़ाना आवश्यक हो जाता है। ज्यों ज्यों अभ्यास बढ़ता है, श्रेय का बोध अधिक स्पष्ट होने लगता है । जो चित्त बाहर दौड़ता रहता था उसे स्वभाव में लाने की चेष्टा साधक करता है जिससे अज्ञान के संस्कार कम होकर ज्ञान के संस्कार बढ़ने लगते हैं। कषायों की तीव्रता कम होने लगती है। विषयों का आकर्षण कम होने लगता है। सुख-दुःख, हर्ष, शोक का मन पर प्रभाव कम होने लगता है । निरर्थक बातों में रस कम होने लगता है । दुःखमुक्ति का उपाय जानने की इच्छा तीव्र होती है । तृष्णा कम होने लगती है । प्राप्त परिस्थिति में सन्तोष मानने लगता है। प्रतिकूल परिस्थिति से घबराता नहीं । भागदौड़ अपने आप कम हो जाती है । कार्य सावधानी व सतर्कता से करने लगता है। नई ग्रन्थियों का बँधना कम हो जाता है इसलिये कर्मक्षय होकर आत्मा पवित्रता के पथ पर अग्रसर होने लगती है। दोप्रा दृष्टि ____ अभ्यास बढ़ने से रागद्वष कम होते जाते हैं, चित्त अधिक निर्मल होने लगता है। बोध स्पष्ट होने से आचरण भी शुद्ध और पवित्र बनता जाता है। इस भूमिका में साधक प्राणायाम का अभ्यास बढ़ाता है जिससे चित्त एकाग्र बनने में आसानी होती है। साधक की बाह्य दृष्टि कम होकर अन्दर की ओर अधिक ध्यान देने लगता है । सदाचार के प्रति निष्ठा ही नहीं, पर वह आचरण में भी आता है। चित्त की शान्ति बढ़ने लगती है। स्थिरादृष्टि ___ साधक अभ्यास आगे बढ़ाता है तो राग-द्वोष की ग्रन्थी टूटने लगती है । साधक का मन यदि विषय-विकारों की तरफ जाता है तो उसे वापिस आत्मानुभूति में लगाता है । आत्मानुभूति से जो ज्ञान होता है, वह स्वयं का होता है जिससे वह सम्यक्ज्ञान होता है। साधक को शरीर की नश्वरता तथा आत्मा की अमरता का बोध होता है । पुद्गल परमाणुओं से बना शरीर नश्वर और क्षण-क्षण में बदलने वाला है । उसमें उत्पाद और व्यय अखण्ड चल रहा है। नश्वरता का ख्याल कर वह क्षमता को बढ़ाता है। कषायों का उपशमन होने से चित्त की निर्मलता बढ़ती है । चित्त की प्रसन्नता बढ़ती है । दूसरों के साथ के व्यवहार में सौजन्य बढ़ने से साधक दूसरों की भी शान्ति का कारण बनता है। योग की भाषा में कहा जाय तो प्रत्याहार यानी विषय-विकारों की तरफ जाने वाले मन को स्वानुभव की ओर साधक आरोपित करता है । चित्त की भ्रान्ति दूर होकर निस्सन्देह मन से साधक के द्वारा सहजभाव से निष्ठा के साथ सत्कार्य होने लगते हैं । आत्मानुभव बढ़ता जाता है। कांता दृष्टि ज्यों-ज्यों चित्त की एकाग्रता का अभ्यास बढ़ता है, साधक की दृष्टि अधिक प्रकाशवान गहरी और स्थिर होती जाती है । आत्मानुभूति सम्यकदृष्टि का रूप लेती है । अपने आपकी जानकारी वास्तविकता का रूप लेती है। साधक अधिक सजग होकर अपने में होने वाली संवेदनाओं को अधिक स्पष्टता से देखता है। अपने द्वारा होने वाली क्रिया को सावधानीपूर्वक देखता है । चित्त अधिक शुद्ध होकर उसके द्वारा सद्गुणों की रुचि बढ़कर उसके द्वारा सदाचार होने लगता है । साधक के द्वारा होने वाले सदाचार या सत्कर्म में सहजभाव में अनासक्ति बढ़ती जाती है । उसे जो बोध होता है वह अनुभव पर आधारित होने से सहजभाव से उसकी आसक्ति कम होने लगती है। स्व-भाव और पर-भाव को गहराई से देखने लगता है । आत्मा व पुद्गल के भेद को जानने से साधक के चित्त में शांति बढ़ती जाती है । आत्मा को मोह मूर्छा से अलग रखता है । कर्म-आश्रब छूटने लगते हैं, संवर दशा प्रकट होती है। अनासक्ति के कारण राग-द्वेष का उपशम होकर नई ग्रन्थियाँ बँधती नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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