Book Title: Swarup Sadhna ka Marg Yoga evam Bhakti
Author(s): Sushil Kumar
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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________________ स्वरूप- साधना का मार्ग : योग एवं भक्ति - आचार्य मुनिश्री सुशील कुमार जी (प्रख्यात धर्म प्रवक्ता, विश्वधर्म सम्मेलन के संयोजक, विदेशों में अहिंसा एवं शाकाहार प्रचार में संलग्न ) जैन परम्परा आत्मा में अनन्त शक्ति मानती है । और उस शक्ति का पूर्ण विकास कर आत्मा से परमात्मा बनने की उसमें क्षमता है। श्री हेमचन्द्राचार्य ने इस आत्मशक्ति के पूर्ण विकास का साधन योग बताया है। जबकि आचार्य हरिभद्रसूरि ने सभी दुःखों से मुक्त होने के साधन को योग कहा है । आत्मा की सभी दुःखों से मुक्ति होकर निज स्वभाव की प्राप्ति योग द्वारा होती है । सभी धर्म मनुष्य को दुःखों से मुक्त होने का उपाय बताते हैं, दुःख से मुक्त होकर सुख प्राप्ति की होती है । उसमें योग ऐसी प्रक्रिया है होता है। वैसे मनुष्य सुख प्राप्ति के प्रयत्न करता है पर सुख प्राप्ति के प्रयत्नों के बावजूद अधिकांश लोग सुख प्राप्ति में सफल नहीं होते बल्कि दुःखी पाये जाते हैं। क्योंकि वे सुख प्राप्ति का जो मार्ग विविध धर्मो ने बताया है, तदनुसार आचरण न कर अपनी कल्पना सुख प्राप्ति के अन्य प्रयत्न में लगे हुए हैं । सुख प्राप्ति का मार्ग - जैनधर्म ने योग के रूप में बताया है । प्रायः सभी धर्म उसी मार्ग से मनुष्य को दुःख से मुक्त होने का उपदेश करते हैं । से खण्ड ४/१० Jain Education International क्योंकि मनुष्य की सहज प्रेरणा जिससे मनुष्य दुःख से मुक्त मनुष्य के सुख प्राप्ति में बाधक कौनसी बातें हैं जो उसे दुःखी बनाती हैं ? यह विचार करने पर दिखाई देगा कि राग और द्व ेष यह दो उसके ऐसे महान शत्र ु हैं जो उसे सुख के मार्ग से भटकाकर दुःख में डालते हैं । समस्या का मूल राग-द्व ेष- कषाय है । कषाय से मन या चित्त रंगा जाता है । राग से रंगा हुआ मन प्रीति का अनुभव करता है और प्रीति से लोभ, माया, वासना, और परिग्रह के प्रति मोह जागता है । द्व ेष अहंकार को जन्म देता है । अहंकार से कोध, घृणा और तिरस्कार उत्पन्न होता है । जिससे दुःखों की परम्परा का निर्माण होकर अनन्त सुख जिसका सहज स्वभाव है, वह आत्मा दुःखी बनती है । उस पर कषायों के कारण विविध आवरण आकर दुःख का अनुभव करने लगती है । आत्मशक्ति को जाग्रत करने के लिये धर्म-विद्या, दार्शनिक चिन्तन और यौगिक अनुसन्धान आदि विधाएँ हैं । धर्म के अभ्यासियों ने, दर्शन के आचार्यों ने और योग के साधकों ने जीवन की अनुभूतियों और शक्तियों को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है कि सारा विश्व उन उपलब्धियों से अभिभूत है । ( ७३ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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