Book Title: Swarup Sadhna ka Marg Yoga evam Bhakti Author(s): Sushil Kumar Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 6
________________ 78 स्वरूप-साधना का मार्ग : योग एवं भक्ति : आचार्य मुनि श्री सुशीलकुमार जी भक्ति से साधक सामान्य साधना शुरू कर अन्त में निरालम्ब ध्यान की उच्च अवस्था में पहुँचता है। जो आलम्बन लिया जाता है वह वीतराग प्रभु का, जो अपने आप पर विजय पाकर पूर्णत्व को पहुँचे / उसी रास्ते से साधक को सिद्धि प्राप्त करनी होती है। भक्तियोग से ज्ञानयोग में प्रवेश करना होता है जिससे समता तक पहुँच सके और वह अवस्था आती है रूपातीत ध्यान से / सामान्य साधना भक्ति से ही प्रारम्भ होती है। भक्ति के भी अनेक प्रकार हैं, फिर भी मुख्यरूप से नवधा भक्ति का ही योगदीपिकाकार ने 56 वें श्लोक में वर्णन किया है श्रवण क्रिया भक्ति-श्र तश्रवण अन्तरंग वृत्ति कीर्तन क्रिया भक्ति-आत्मकीर्तन, आत्मघोप सेवन क्रिया भक्ति-भेदज्ञान से आत्मपरिणति वचन क्रिया भक्ति---शुद्ध चैतन्य भाव का बारम्बार वन्दन ध्यान क्रिया भक्ति-धर्मध्यान-शुक्ल ध्यान की परिणति लघुता क्रिया भक्ति-अहंतानाश-नम्रता की प्राप्ति एकता क्रिया भक्ति--समत्व भावना समता क्रिया भक्ति-सभी में समत्व दर्शन का अभ्यास / जब साधक भक्ति के द्वारा अन्तःकरण निर्मल कर लेता है तो क्रिया और ज्ञान द्वारा अष्टांग मार्ग पर चढ़ने योग्य हो जाता है / ज्ञान से भक्ति मार्ग का प्रतिपादन इसलिये करना पड़ा कि सर्वप्रथम स्वामी-सेवक भाव भक्ति में अवश्य रहता है / वह अपने स्वामी को परमाराध्य की तरह मानता है और अनेक प्रकार से आत्मज्ञान प्राप्ति के लिये स्वामी का अनुग्रह चाहता है। भक्तिमार्गी स्वामी-सेवक भाव में जब हिलोरें लेता है तो उस प्रेमअवस्था का भी योगदीपिकाकार ने अलौकिक रूप से वर्णन किया है और उसकी भी चिन्तन-भेद से 64 अवस्थाएँ बताई हैं। भक्त, प्रभु के अनन्तरूपों को स्मरण करता हुआ प्रेम-विह्वल होकर प्रार्थना स्वरूप प्रभु से किस-किस प्रकार उपलब्धि चाहता है / परम प्रभु परमात्मा के अलौकिक स्वरूपों को निहारता हुआ भक्त-साधक तद्गुणलब्धि के लिये प्रार्थना करता है। परमात्मा के अलौकिक शान्त स्वरूप, अनन्त ज्ञान रूप, अनुपम क्षायिक आनन्द निमग्न, समरस एवं सहज-स्वरूप का दर्शन तथा अनुभूति कर साधक प्रभुमय होकर गुण चिन्तन करता हुआ अपनी सुधबुध भूल जाता है और परमात्मस्वरूप हो जाने के लिए विकल हो जाता है, आदि-आदि / वास्तव में यह गुण-चिन्तन की साधना ही माधक को प्रभु के साथ तदाकार बनाती है और आत्मा के निजगुणों को चरम उत्कृष्ट तथा प्रकट करने में सहायक होती है / योगमार्ग का प्रारम्भ ऐसे ही आत्मविश्वासी, प्रभुसमर्पित, वीतराग-उपासक तथा विषय-विरक्त आत्मजिज्ञासुओं के लिए हुआ है। 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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