Book Title: Swarup Sadhna ka Marg Yoga evam Bhakti Author(s): Sushil Kumar Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 2
________________ ७४ स्वरूप-साधना का मार्ग : योग एवं भक्ति : आचार्य श्री मुनि सुशीलकुमार जी कषाय के कारण आत्मशक्ति पर आवरण आ गया है, अतः हम दुःखी बने बैठे हैं, उससे मुक्त होने का व्यवस्थित और मनोवैज्ञानिक मार्ग योग है। वैदिक, जैन, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों का यदि कहीं समन्वय होता है तो योग विद्या में ही होता है। आध्यात्मिक धरातल पर सभी को योग को अपनाना होता है। दुःख-मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन योग है। ___ जैनधर्म ने सारे दुःखों का मूल हिंसा माना है और परम मांगल्य अहिंसा को। अहिंसा सभी सुखों की जननी है । अहिंसा की व्याख्या है--प्राणीमात्र के प्रति समता। बुद्ध ने भी शील, समाधि और प्रज्ञा द्वारा समता लाने को कहा है। और गीता का तो हार्द ही समता है। योग इस समता को जीवन में उतारने का अभ्यास है जिसके फलस्वरूप जीवन में समता आकर मानव जीने की कला सीखता है । दुःखी जीवन को सुखी बनाने की कुञ्जी उसके हाथ लगती है । अन्य धर्मों ने भी वही बात दुहराई है। इसलिये योगमार्ग का प्रचार धर्म का प्रचार है और धर्म का प्रचार ही जैनत्व का प्रचार है । जैनधर्म आचार में अहिंसा के द्वारा समता और विचार में अनेकान्त के द्वारा व्यापकता लाने को कहता है, समता को पुष्ट करता है और सबके प्रति आत्मवत् व्यवहार करने के लिये संयम अपनाने को कहता है । समता का प्रारम्भ अपने से करना होता है और उसके लिये योग सर्वोत्कृष्ट साधन है । - जैन धर्म सबको आत्मवत् मानने वाला आत्मधर्म है । उसकी सारी क्रियाएँ-कर्मकांड इमी पर आधारित हैं । आत्माभिमुख-अन्तर्मुख बनने के लिये हैं। प्राधान्य अर्तमुखता है, कर्मकांड और क्रियाएँ गौण हैं। एक अनुभवी योगी ने बताया है कि सभी तीर्थों में श्रेष्ठ तीर्थ-धर्मतीर्थ मन है-आत्मा है। अज्ञानी ही बाहर ढूढते हैं । मन का मैल धोना है तो उसे अन्तर्मुख बनाकर अभ्यास करना होगा। आभ्यन्तर विकास और प्रज्ञा के प्रकर्ष के लिये योग के सिवा कोई दूसरा प्रभावशाली मार्ग नहीं है। जैनधर्म में ऋषभदेव से लगाकर महावीर तक २४ तीर्थंकर परमयोगी थे। भगवान महावीर के साधनाकाल का जो वर्णन मिलता है उसमें ध्यान पर अधिक भार दिया गया है । उन्होंने समता की ऐसी साधना की कि साधनाकाल में जो भयानक उपसर्ग लोगों की ओर से दिये गये वे समतापूर्वक सहन किये । ___ अपने आप की अनुभूति पाना हो तो चित्त को समता में लगाकर अपने आपको देखो । अपने आप की अनुभूति पाना ही सम्यकदर्शन है। बिना सम्यक्दर्शन के सम्यक्ज्ञान सम्भव नहीं और बिना सम्यक्ज्ञान के सम्यक्चारित्र आ नहीं सकता। और बिना सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के दुःख-विमुक्ति सम्भव नहीं। इसीलिये जैन-साधना में कायोत्सर्ग का अत्यन्त महत्व है। काया---शरीर जिसका क्षण-क्षण में परिवर्तन होता है । उत्पाद-व्यय का क्रम चल रहा है। उस काया में जो कुछ चल रहा है, उसे देखना । मन में चलने वाली प्रत्येक वृत्ति, तरंग या संवेदना को देखना, तटस्थतापूर्वक देखना । बाहर से चित्त को अन्तर्मुख करना सम्यकदर्शन है। उस देखने में किसी प्रकार का राग-द्वेष न हो, समतापूर्वक देखना यह योग की दूसरी क्रिया है। पहली कायोत्सर्ग की, जिसमें काया को भूलकर श्वास का ध्यान करना और दूसरी क्रिया में शरीर में चलने वाली क्रिया को सजग होकर देखना । जब मन को वाहरी दुनियाँ से अपने आप को देखने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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