Book Title: Swadhyaya Shiksha Author(s): Dharmchand Jain Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch View full book textPage 6
________________ सम्पादकीय अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं। सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तइ।। -आवश्यकनियुक्ति, गाथा 192 अरहन्त अर्थरूप वाणी फरमाते हैं तथा शासन के हित के लिए गणधर उसे सूत्ररूप में गूंथते हैं। गणधर भी मात्र अंग आगमों की ही रचना करते हैं, किन्तु उनके अनन्तर स्थविर अंगबाह्य आगमों की रचना करते हैं गणहरथेरकयं वा आएसा, मुक्कवागरणओ वा। धुव-चल-विसेसओ वा अंगाणंगेसु नाणत्तं।।-विशेषावश्यक भाष्य गणधरों अथवा स्थविरों द्वारा रचित अंग एवं अनंग (अंग बाह्य) आगम दोनों का प्रामाण्य है। जब स्थविरकृत आगम तीर्थकर वाणी के अनुरूप एवं अबाधित हों तभी उनका प्रामाण्य स्वीकार्य होता है। ___मूलाचार में कहा गया है कि सूत्र गणधर कथित, प्रत्येकबुद्ध कथित, श्रुतकेवलि कथित तथा दशपूर्वी कथित होता है सुत्तंगणहरकथिदं,तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च। सुदकेवलिणा कथिदं, अभिण्णदसपुबकथिदं च।। मूलाचार 5.80 अर्थरूप प्ररूपण की दृष्टि से सभी तीर्थंकरों के आगम एक जैसे होते हैं, इस दृष्टि से आगमों को शाश्वत भी कहा जाता है, किन्तु शब्द की दृष्टि से प्रत्येक तीर्थकर के काल में आगमों का ग्रथन या निर्माण किया जाता है। वर्तमान में उपलब्ध अंग-आगम गणधर सुधर्मास्वामी द्वारा ग्रथित हैं, किन्तु उपांग, मूल, छेद आदि अंगबाह्य सूत्र स्थविर कृत हैं। स्मरणशक्ति में आयी शिथिलता के कारण इन आगमों की पाँच बार वाचनाएँ हुई। आगमों की पाटलिपुत्र (वीर निर्वाण १६० वर्ष), कुमारी पर्वत (वीर निर्वाण ३०० वर्ष), मथुरा (वीर निर्वाण ८२७), वल्लभी (नागार्जुनीय वाचना) एवं वल्लभी (वीर निर्वाण ६८० वर्ष) में वाचनाएँ हुई। इनमें अन्तिम वाचना देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय हुई। आगम की यह परम्परा उसके पश्चात् निरन्तर उसी रूप में चल रही है। देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने आगमों का नया निर्माण नहीं किया, किन्तु उन्होंने आगमों को सम्पादित कर उन्हें लिपिबद्ध कराया। आगमों का लेखन देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय ही हुआ, ऐसा माना जाता है। आगमों की अपनी विशिष्ट शैली है, जिसमें जम्बूस्वामी आर्य सुधर्मा स्वामी से पृच्छा करते हैं तथा आर्य सुधर्मास्वामी शिष्य जम्बूस्वामी को भगवान महावीर से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 174