Book Title: Sutrkritang Sutram Pratham Shrutskandh
Author(s): Punyakiritivijay
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust

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Page 14
________________ क्रमः श्रीसूत्रकृताङ्ग नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः 1 // 4 // पकमः 1.3. विषयः सू० गा० नियुक्तिः पृष्ठः | क्रमः विषयः सू० गा० नियुक्तिः पृष्ठः प्रथमाऽध्ययने कृतग्रासैषी। (76-79) - 89 -90 तृतीयोद्देशकः सू० गा०१-१६ |1.4.2 नानन्तोऽनित्योऽन्तवान्नित्यो वा (कुदृष्टीनामाचारदोषः)। (60-75) - 75-88 | सपरिमाणो वा लोकः, सहस्रान्तरितपूतिभोजिनो त्रसस्थावरपरावृत्तेः, वैशालिकमत्स्यवत् अनन्त-१-४ (अपुत्रस्य इत्यादि घातप्राप्तिः। (60-63) - 75-76 लोकवादखण्डनं च)। (80-83) - 92-93 देवब्रह्मगुप्त ईश्वरकृतः 1.4.3 सर्वे दुःखाक्रान्ताः, अतोऽहिंसको प्रधानादिमयः स्वयम्भूकृतः ज्ञानी, चर्याशनादिषु अगृद्ध आत्मरक्ष: मारकृता माया अण्डोद्भवं 5-10 ससामाचारीकश्च उत्कर्षादिरहितः जगत् इत्यादिवादनिरासः / (64-69) - 78-84 समितः संवृतोऽसितः क्रीडया भवावतारः मोक्षाय यतो यतिः। (84-88) - 95-96 तद्दूषणं च, अणिमादि- 11-16 |2 // द्वितीयं सू० गा० गृद्धानां आसुरता च। (70-75) - 85-87 | वैतालीयाऽध्ययनम्॥ (89-164) 36-44 99-141 प्रथमाऽध्ययने द्वितीयाऽध्ययने चतुर्थोद्देशकः सू० गा०१-१३ प्रथमोद्देशकः (हिता- सू० गा०१-२२ (कुदृष्टीनां विशेषदोषाः)। (76-88) - 88-98 हितप्राप्तपरिहारबोध:)। (89-110) 36-42 99-112 अनुत्कर्षोऽप्रलीनो यापको मुनिः; 2.1.1 विदार्यविदारकविदारणीयनिक्षेपाः अपरिग्रहोऽनारम्भश्च त्राणम्, 1-4 (4) द्रव्ये परश्वादि दार्वादि च, 1.4

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