Book Title: Sutra Samvedana Part 03
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 176
________________ अठारह पापस्थानक सूत्र १५७ इस प्रकार अन्य की हिंसा करनेवाला जीव खुद की भी भावहिंसा करता है, कर्म का बंध करता है एवं दुर्गति की परंपरा का सृजन करता है । माता के आग्रह से मात्र एक मिट्टी का मूर्गा बनाकर, उसका वध करनेवाले यशोधर राजा को तिर्यंचगति की कैसी परंपरा मिली; यह याद करके भवभीरु आत्मा को इस हिंसा नामके पहले पापस्थानक को छोड़ देना चाहिए । जिज्ञासा : गृहस्थ जीवन में हिंसा का संपूर्ण त्याग कैसे हो सकता है ? तृप्ति : गृहस्थजीवन में साधु की तरह हिंसा का संपूर्ण त्याग सम्भव नहीं है । गृहस्थ को अपने जीवन निर्वाह के लिए एकेन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा अनिवार्यरूप से करनी पड़ती है, तो भी वह चाहे तो हिंसा को मर्यादित अवश्य कर सकता है । इसके अतिरिक्त, हिंसामय कार्य करते समय, श्रावक के हृदय में रहा हुआ जयणा का परिणाम (जीवों को बचाने का भाव) उसे निरर्थक हिंसा से बचाने के साथ साथ उसके हृदय के भाव कोमल बनाए रखता है । __ हिंसामय कार्य करते समय भी श्रावक सतत सोचता रहता है कि, “मैं संसार में हूँ । इसलिए मुझे ऐसे हिंसादि पाप करने पड़ रहे हैं, कब ऐसा धन्य दिन आएगा कि जब मैं इन हिंसादि पापों से छूटकर सर्वविरति धर्म का स्वीकार करूँगा ?" हृदय की कोमलता एवं ऐसी भावना के कारण उसे कर्मबंध भी बहुत कम होता है और अनावश्यक हिंसा से बचने का प्रयत्न, अनिवार्य रूप से होनेवाली हिंसा से भी छूटने की भावना एवं इसके साथ ही हृदय में सतत बहते हुए दया के भाव, श्रावक को शायद कर्मबंध से न बचा सकें तो भी हिंसा द्वारा होते हुए कर्म के अनुबंध से तो बचाते ही हैं। इस पद का उच्चारण करते समय सोचना चाहिए, “आज के दिन में अजयणा से, अनुपयोग से मैंने कितने जीवों की हिंसा की ? कितने जीवों को पीडा दी ? किन जीवों का किस प्रकार से अपराध किया ?" उन सब विषयों को स्मृति में लाकर करुणा भरे हृदय से उनसे क्षमा मांगकर, अपने इन दुष्कृत्यों का मन, वचन, काया से मिच्छा मि दुक्कडं देना चाहिए ।

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