Book Title: Sutra Samvedana Part 03
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 196
________________ १७७ अठारह पापस्थानक सूत्र I वास्तव में यह पाप खूब हानिकारक है । उससे कुसंस्कार पुष्ट होते हैं, प्रगट आत्मगुणों का नाश होता है, मनुष्यजीवन के कीमती क्षण बरबाद हो जाते हैं एवं कितनों के ही जीवन में विघ्न खड़े हो जाते हैं । इसलिए इन पापकर्मों का सर्वथा त्याग करना चाहिए । इस पद का उच्चारण करते समय दिनभर में हुई पर की निंदा को याद करके “ऐसा कार्य मुझ से कैसे हुआ ? उससे मुझे क्या फायदा हुआ ? बेकार में कैसा कर्म बांधा ?" इस प्रकार आत्म निंदा एवं गर्हा द्वारा इन पापों का प्रतिक्रमण करके ‘मिच्छा मि दुक्कडं' देना चाहिए । सत्तरमें माया - मृषावाद : पाप का सत्तरहवाँ स्थान है : 'मायापूर्वक झूठ बोलना' । 'माया मृषावाद' अर्थात् किसी को ठगने के लिए आयोजनपूर्वक झूठ बोलना । देखा जाए तो झूठ बोलने के कारण बहुत हैं, परन्तु उनमें माया करके, जाल बिछाकर, किसी को ठगने के लिए जो झूठ बोला जाता है, उसे ‘माया मृषावाद' कहते हैं । दुनिया में इसे सफेद झूठ (White Lies - Lame excuse) कहते हैं । इसमें दूसरा (मृषावाद का ) और आठवाँ (माया का) पाप एक साथ होता है । सामान्यतः सहज भाव से, अनायास असत्य बोलनेवाले से असत्य बोलकर किसी को ठगने के लिए मायापूर्वक (पूर्व आयोजनपूर्वक) असत्य बोलनेवाला बहुत बड़ा गुनहगार माना जाता है, क्योंकि वह अन्यों का विश्वासघात करता है । आर्यदेश में विश्वासघात का पाप बड़ा पाप गिना जाता है । मात्र अपने स्वार्थ के लिए ऐसा झूठ बोलनेवाले का मानसिक परिणाम भी बहुत कष्ट होता है । इससे उसका कर्मबंध भी बहुत बलवान होता है । इसलिए, ऐसे मायापूर्ण के असत्य भाषण का त्याग करना अति आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है । इस पद का उच्चारण करते समय दिवस के दौरान अपने स्वार्थ के लिए या गलत आदत के कारण कहीं भी मायापूर्वक झूठ बोला हो तो उसे याद करके

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