Book Title: Sutra Samvedana Part 03
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 197
________________ १७८ सूत्रसंवेदना - ३ ऐसा पुनः न हो ऐसे परिणामपूर्वक उसकी निंदा, गर्हा एवं प्रतिक्रमण करना है। पुनः ऐसी मलिन वृत्ति मन में उठे ही नहीं उस तरह 'मिच्छामि दुक्कडं' देना है अढारमें मिथ्यात्व शल्य : पाप का अठारवाँ स्थान है " मिथ्यात्वशल्य । ” मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय के कारण जीव की बुद्धि में जो विपर्यास पैदा होता है, एक प्रकार का जो भ्रम पैदा होता है, तत्त्वभूत पदार्थों की जो अश्रद्धा, विपरीत श्रद्धा या मिथ्या मान्यताएँ होती हैं, उन्हें मिथ्यात्व कहते हैं । मिथ्यात्व का यह परिणाम जीव को खयाल भी न आए इस तरीके से शल्य = काँटे की तरह पीड़ा देता है, इसलिए इसे मिथ्यात्व शल्य कहते हैं । मिथ्यात्व के कारण उत्पन्न हुए विपर्यास के कारण जीव; आत्मा, पुण्य, पाप, परलोक आदि का स्वीकार नहीं कर सकता अथवा आत्मादि पदार्थों को देख नहीं सकता, इसलिए वे हैं हीं नहीं ऐसा मानता है । 1 जन्म से मिला हुआ शरीर आत्मा से अत्यंत अलग है, तो भी मिथ्यात्व के कारण इस भव तक साथ रहनेवाला शरीर ही मैं (आत्मा) हूँ, ऐसा जीव मानता है । इससे जीव शरीर की रक्षा करने के लिए उसे ठीक रखने, सुडौल बताने एवं सजाने के लिए हिंसादि अनेक पाप करता है । अपनी याने स्व- आत्मा की उपेक्षा करता है, आत्माके सुख दुःख का विचार भी नहीं करता । कर्म से आवृत हुई उसकी ज्ञानादि गुणसंपत्ति को प्रकट करने का प्रयत्न भी नहीं करता एवं आत्मा को सुख देनेवाले क्षमादि गुणों को प्राप्त करने की मेहनत भी नहीं करता । जीव को जिस किसी भी सुख - दुःख की प्राप्ति होती है, वह अपने अपने कर्मानुसार प्राप्त होती है, तो भी मिथ्यात्व के उदय के कारण जीव सुख दुःख के कारणरूप स्वकर्म का विचार छोड़, बाह्य निमित्तों को सुख दुःख का कारण मानकर, उसके प्रति राग-द्वेष करता है । इस जगत् के किसी भी भौतिक पदार्थ में ऐसी शक्ति नहीं है कि वह जीव को सुख या दुःख दे सके । जीव जिसमें सुख की कल्पना करता है, उसमें उसको सुख का भ्रामिक अनुभव होता है एवं जिसमें दुःख की कल्पना करता है, उसमें दुःख का भ्रम होता है । वास्तव में तो सुख एवं दुःख सामग्री से हैं ही नहीं ।

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