Book Title: Sutra Samvedana Part 03
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 181
________________ १६२ सूत्रसंवेदना-३ न होने देना बहुत कठिन है । इसलिए द्रव्य परिग्रह का त्याग करना अथवा कम से कम मर्यादा बांधना हितावह है । ___ यह पद बोलते हुए स्वजीवन में धन-धान्यादि का संग्रह कितना अनावश्यक है उसे याद करके, 'यह भी पाप है, इसलिए छोड़ने योग्य है,' वैसा निर्णय करके परिग्रह के पाप की निंदा, गर्दा एवं प्रतिक्रमण करते हुए ‘मिच्छा मि दुक्कडं' देना चाहिए। छट्टे क्रोध : पाप का छट्ठा स्थान है 'क्रोध". क्रोध कषाय मोहनीय कर्म के उदय से होनेवाला आत्मा का विकृत परिणाम है । गुस्सा, क्रोध, आवेश, बैचेनी, अधीराइ, घृणा, अरुचि ये सब क्रोध के पर्याय हैं । किसी का अपराध या भूल सहन नहीं होने के कारण वाणी में उग्रता, काया में कंप या मन में आवेश, अधीरता या घृणा आदि के जो भाव पैदा होते हैं वे क्रोध के परिणाम हैं । वास्तव में तो किसी के अपराध को सहन नहीं करने का परिणाम ही क्रोध है । एक बार क्रोध करने से पूर्व करोड़ वर्ष तक पाला हुआ संयम भी व्यर्थ हो जाता है । क्रोध शांत-प्रशांत भाव का नाश करता है। क्रोध से कभी कार्य-सिद्धि नहीं होती । कभी क्रोध से कार्य-सिद्धि दिखे तो भी वह क्रोध के कारण नहीं होती, परन्तु वह कार्य-सिद्धि पूर्व संचित पुण्य से होती है । क्रोध कार्य को बिगाड़ता जरूर है, पर कभी कार्य को सुधार नहीं सकता। क्रोध की अग्नि खुद को भी जलाती है एवं इसके सान्निध्य में रहनेवाले अन्य को भी जलाती है । इसलिए कोई भी जीव चाहे कैसा भी अपराध करे तो भी उसके प्रति क्रोध नहीं करना चाहिए, बल्कि सोचना चाहिए कि, सब जीव अपने अपने कर्म के अधीन हैं । कर्माधीन जीवों की प्रवृत्ति के उपर घृणा, अरुचि बैचेनी करने से उन जीवों के प्रति वैमनस्य पैदा होता है ऐसा विचार करके क्षमा धारण करनी चाहिए । 8. क्रोध, मान, माया, लोभ की विशेष समझ के लिए देखें 'सूत्र संवेदना भाग-१, सूत्र-२' 'चउविहकसायमुक्को' पद का विवरण । 9. अपराधाक्षमा क्रोधो । - योगसार ३ : ५

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