Book Title: Sutra Samvedana Part 03
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 190
________________ अठारह पापस्थानक सूत्र इस मानसिक परिणाम के कारण जीव ऐसा कर्म बांधता हैं कि, जिससे दूर होने का मन होता है वही वस्तु सामने आकर खड़ी रहती है और बाद में फिर से उसके प्रति घृणा आदि होती है, पुनः वैसा ही कर्म बंध होता हैं, ऐसा विषचक्र चलता ही रहता है । इसलिए भवभीरू आत्मा को ऐसे द्वेष भाव का एवं द्वेष के कारणरूप राग भाव का त्याग करने के बारे में हमेशा सोचना चाहिए कि, “जिसके प्रति राग - द्वेष है, वह जड द्रव्य हो या जीव द्रव्य हो, दोनों मुझ से भिन्न हैं, मुझ से अलग वे मेरा अच्छा या बुरा कुछ भी नहीं कर सकते । उनमें मुझे सुख या दुःख होने की शक्ति ही नहीं है । मैं ही मन से द्वेष करके दुःखी होता हूँ । इसके बदले मन को समभाव में रखने का प्रयत्न करूं तो मेरा वास्तविक आत्महित हो" - राग से ही द्वेष का जन्म होता है, इसलिए प्रथम राग से ही बचना है । राग के जाने के बाद द्वेष खड़ा ही नहीं रह सकता । वह खुदबखुद चला जाता है । ऐसा सोचकर राग द्वेष से अलग होने का यत्न होगा, तभी इस पाप से बच सकते हैं । १७१ इस पद का उच्चारण करते हुए दिन के दौरान किसी के प्रति अभाव या घृणा हुई हो, किसी के प्रति आवेश या तिरस्कार प्रगट हुआ हो तो उन सब पापों को याद करके, “मैंने यह बहुत गलत किया है ऐसे राग-द्वेष के द्वन्द्वों में फंसा रहूँगा तो मेरे भव का अंत कब होगा ? समता का आस्वाद कब करूंगा ? इसी भव में समता को पाना हो तो विचार करके ऐसे भावों से पर होना ही पड़ेगा ।" ऐसे अंतःकरणपूर्वक इन पापों की आलोचना, निंदा एवं गर्हा करके उनका 'मिच्छामि दुक्कडं' देना है । बारमें कलह : पाप का बारहवाँ स्थान है 'कलह' । क्लेश, कलह, कंकास, कही सुनी करनी, झगड़ा टंटा करना, आदि विविध प्रकार के अयोग्य वाचिक व्यवहार कलह है । कलह प्रायः द्वेष या क्रोध के परिणाम से अथवा राग या अनुकूलता में मिली निष्फलता से पैदा होता है । द्वेष होने के बाद सहनशीलता न होने के कारण पिता-पुत्र, सास-बहू, ननद

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