________________
३४
अनुसन्धान- ४०
दीक्षा कब हुई निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, किन्तु युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि स्थापित ४४ नन्दियों में १८वाँ नम्बर 'प्रमोद' नन्दी का है । रत्ननिधानोपाध्याय का १६२८ के पत्र में उल्लेख है, और उनकी नन्दी संख्या १२ है । अत: १६३५ के आस-पास ज्ञानप्रमोद की दीक्षा होनी चाहिए, और सम्भवतः इनको वाचक पद जिनसिंहसूरि ने प्रदान किया हो ।
I
वाचक ज्ञानप्रमोद की मुख्य कृति वाग्भटालङ्कार टीका है । इसकी रचना संवत् १६८१ में हुई । वाग्भटालङ्कार की प्राप्त टीकाओं में यह सब से बड़ी टीका है । टीकाकार ने इस टीका में अपने प्रगाढ़ पाण्डित्य का दिग्दर्शन करवाया है । लगभग ५ दशक पूर्व पुरातत्त्वाचार्य मुनिश्री जिनविजयजीने मुझे दो ग्रन्थों का सम्पादन कार्य दिया था १. वाग्भटालङ्कार ज्ञानप्रमोदीय टीका और २ लघु पंच काव्य शान्तिसूरिकृत टीकासहित । मैंने अनेक प्रतियों के पाठान्तर इत्यादि से संवलित कर दोनों प्रेसकॉपियाँ मुनिजी को सौंप दी थी... सम्भवतः यह ज्ञानप्रमोदीय टीका लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृत विद्या मन्दिर, अहमदाबाद से प्रकाशित हो चुकी है ।
प्रस्तुत दोनों स्तोत्रों की किस प्रति के आधार से मैंने प्रतिलिपि की थी, मुझे ध्यान नहीं है । यह निश्चित है कि वह प्रति १८वीं सदी की अवश्य थी ।
१. प्रथम आदिनाथ स्तोत्र १४ पद्यों में है । १ - १३ पद्य वसन्ततिलका और १४वाँ पद्य स्रग्धरा छन्द में है । १४वें पद्य में कोट्टदुर्गालङ्कार का उल्लेख किया है, किन्तु यह कोट्टदुर्ग कौनसा है शोध्य है । यदि नगरकोट (हिमाचल प्रदेश) की कल्पना की जाए तो सम्भव प्रतीत नहीं होती । कोट्ट शब्द से जोधपुर प्रदेशस्थ होना चाहिए ।
२. दूसरा स्तोत्र रतलाम मण्डन पार्श्वनाथ स्तोत्र है । इस रतलाम को रत्नपुरी, रत्नावली आदि नामों से भी जाना जाता है । यह मध्यप्रदेश में है I इस स्तोत्र में ८ पद्य वसन्ततिलका छन्द के हैं और अन्तिम ९वाँ पद्य इन्द्रवज्रोपजाति का है ।
इन दोनों स्तोत्रों की भाषा और शैली देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि कवि अधिकारी विद्वान् था |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org