Book Title: Sukhi Hone ki Chabi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Jayesh Mohanlal Sheth

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ वह सच्चे देव को अंतर से पहचानता है और वैसे सच्चे देव को जानते ही अर्थात् (स्वानुभूति सहित की ) श्रद्धा होते ही वह जीव वैसे देव बनने के मार्ग में चलनेवाले सच्चे गुरु को भी अंतर से पहचानता है और साथ ही साथ वह जीव वैसे देव बनने का मार्ग बताने वाले सच्चे शास्त्र भी पहचानता है। इसलिए प्रथम तो शरीर को आत्मा न समझना और आत्मा को शरीर न समझना। अर्थात् शरीर में आत्मबुद्धि होना, वह मिथ्यात्व है। शरीर पुद्गलद्रव्य का बना हुआ है और आत्मा जो कि अलग ही अरूपी द्रव्य होने से पुद्गल को आत्मा समझना या आत्मा को पुद्गल समझना, यह विपरीत समझ है। दूसरे प्रकार से पुद्गल से भेदज्ञान और स्व के अनुभवरूप ही वास्तविक सम्यग्दर्शन होता है और वह कर्म से देखा जाए तो कर्मों की सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम या क्षय को सम्यग्दर्शन कहा जाता है, परंतु छद्मस्थ को कर्मों का ज्ञान नहीं होता, इसलिए हमें तो प्रथम कसौटी से अर्थात् पुद्गल से भेदज्ञान और स्वानुभवरूप (आत्मानुभूतिरूप ) ही सम्यग्दर्शन समझना चाहिए। इसलिए प्रश्न होता है कि सम्यग्दर्शन करने के लिए क्या करना जरूरी है ? उत्तर : भगवान ने कहा है कि 'सर्व जीव स्वभाव से ही सिद्धसमान हैं' यह बात समझना जरूरी है। संसारी जीव शरीरस्थ हैं और सिद्ध जीव तो मुक्त हैं तो सुखी होने की चाबी ९

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63