Book Title: Subodh Jain Pathmala Part 02 Author(s): Parasmuni Publisher: Sthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur View full book textPage 6
________________ लथ्यो को विकृत कर अपनी बातों का समावेश जान-बूझ पर या विशुद्ध जानकारी के अभाव में पागम की दुहाई देकर, लेखक गुरु गोबर एक कर देते है। मेरे मन में यह बात सदा उठती रही थी कि विद्वान मुनिराज यदि भागमानुकूल शिक्षणोपयोगी साहित्य की रचना करें, तो वह अधिकहतकर होगा। शिक्षण शिविर गरगावास की प्रायोजना के अवसर पर मुनि श्री की योग्यता देखकर उनसे इस कार्य को सम्पन्न फरने का हमने निवेदन किया। मुनि श्री-नै हमारे निवेदन को स्वीकार कर निरन्तर कठिन परिश्रम द्वारा अल्पावधि ने ही सुबोध जैन पालमाला प्रथम व द्वितीय भाग का लेखन कार्य पूर्ण किया। इस भाग के सूत्र-विमाग मे पं० मुनि श्री ने श्रावक श्रावश्यक, जो श्रावक की दैनिक क्रियात्री के नित्य चिन्तन, पालोचन और प्रत्याख्यान का विधान परता है विशद् विवेचन प्रस्तुत किया है। तस्व-विभाग मे २५ बोलो के शेष बोल, समिति गुप्ति का स्तोक व उत्कृष्ट पुण्य वध की प्रति (तीर्थर गोत्र) के २० बोल का सरल स्वरूप उपस्थित किया है। कथा-विभाग की सभी कथाएँ जहाँ संयमित और मर्यादित जीवन का पाठ पढाती हैं, वहाँ काव्य-विभाग के स्तवन वैराग्य की भाव लहरियां जगाते हुए प्रात्मविभोर कर शास्त्रकारी ने "पढम नाग तमो दया" कहा है। पर समाज में स्थिति कुछ विपरीत दिखती है। वर्षों से नित्य सामायिक आदि क्रियाओं के प्राराधन करने वाले ज्ञान के नाम पर छ. काय नव तत्व प्रादि के स्वरूप से अनभिज्ञ पाये जाते हैं, इसका प्रभाव यह होता है फि धर्म करना धार्मिक क्रियाओं तक ही सीमित हो जाता है और व्यावहारिक जीवन मे उसका उपयोग नजर नहीं पाता। फलस्वरूप ज्ञान और प्राधरण मे विभेद और विफलता मिलती है। समाज में विशन धर्म व खा के प्रति रुचि जाग्रत करने का व सद् श्रावकPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 311