Book Title: Sramana 2008 04 Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 7
________________ २ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक २ / अप्रैल-जून २००८ भूत-यज्ञ का प्रतिपादन तथा तीर्थ, स्नानादि अनेक वैदिक कर्मकाण्डों को आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान करना वैदिकधारा के श्रमणधारा के साथ समन्वित होने का परिणाम था । यह भारतीय श्रमणधारा भी कालान्तर में विभिन्न रूपों में विभाजित होती रही है। इसके कुछ संकेत हमें प्राचीन जैन और बौद्ध ग्रन्थों से मिल जाते हैं। प्राकृत भाषा में निबद्ध प्राचीन जैन ग्रन्थ इसिभासियाई एवं सूत्रकृतांगसूत्र और बौद्ध ग्रन्थ थेरगाथा एवं सुत्तनिपात में अनेक औपनिषदिक ऋषियों का सम्मानपूर्वक उल्लेख मिलता है । इसिभासियाइं में जो पैतालीस ऋषियों के उल्लेख हैं, उनमें नारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, आरुणी, उद्दालक आदि औपनिषदिक ऋषियों को अर्हत् ऋषि कहकर उन्हें अपनी श्रमण परम्परा से सम्बद्ध बताया गया है, इसी प्रकार सूत्रकृतांगसूत्र में असितदेवल, पाराशर, रामपुत्त आदि को आचारगत विभिन्नता के बावजूद भी अपनी परम्परा से सम्मत एवं सिद्धि को प्राप्त बताया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि श्रमणधारा भारतीय चिन्तन की एक व्यापक धारा रही है। जैन ग्रन्थों में पाँच प्रकार के श्रमणों के उल्लेख मिलते हैं- (१) निर्ग्रन्थ (२) शाक्यपुत्रीय (बौद्ध) (३) आजीवक (४) गैरिक और (५) तापस। तापसों एवं गैरिक ( गेरुआ वस्त्रधारी संन्यासियों) को श्रमण कहना इस बात का प्रमाण है, हिन्दूधर्म में संन्यास मार्ग का जो विकास हुआ है, वह श्रमणधारा का ही प्रभाव है। तापसों और गैरिकों की यह परम्परा ही सम्भवतः सांख्य और योगदर्शन की जनक और उनका ही पूर्वरूप हो । भारतीय श्रमणधारा से विकसित बौद्ध परम्परा के अस्तित्व के उल्लेख हमें वेदों एवं उपनिषदों में तो नहीं मिलते हैं, किन्तु हिन्दू पुराणों में बुद्ध और बौद्ध धर्म के उल्लेख हैं। इसके विपरीत जैन आगमों में प्राचीन काल से ही बौद्धों के उल्लेख मिलने लगते हैं। जहाँ एक ओर पालि त्रिपिटक में निर्ग्रन्थों, आजीवकों और तापसों के उल्लेख मिलते हैं, वहीं जैन ग्रन्थों में भी शाक्यपुत्रीय श्रमणों (बौद्ध श्रमणों) के उल्लेख मिलते हैं। जैन ग्रन्थ इसिभासियाई में वज्जीयपुत्र, सारिपुत्र और महाकश्यप के उल्लेख उपलब्ध हैं । सूत्रकृतांगसूत्र में उदकपेढालपुत्त का बौद्ध श्रमणों के साथ संवाद, बौद्धों के पंचस्कन्धवाद एवं संततिवाद की सामान्य समीक्षा भी उपलब्ध होती है। इसी प्रकार दीघनिकाय और सुत्तनिपात्त में बुद्ध के समकालीन छः तैर्थिकों का भी उल्लेख मिलता है, जिनमें निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र ( महावीर) और मंखलि गोशालक प्रमुख हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि जहाँ एक ओर भारतीय धर्म-दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थों में प्राचीनकाल से ही बौद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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