Book Title: Sramana 2006 04
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 11
________________ ४ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६ तइयं वत्थ जाइस्सामि। से अहेसणिज्जाइं वत्थाई जाएज्जा, अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारेज्जा। णो धोएज्जा, णो रएज्जा, णो धोयरत्ताई वत्थाई धारेज्जा। अपलिउंचमाणे गामंतरेसु। ओमचेलिए। एवं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं। अहपुण एवं जाणेज्जा उवाइक्कंते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहा परिजुन्नाइं वत्थाइं परिट्ठवेज्जा, अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेलए, अदुवा एगसाडे, अदुवा अचेले, लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसम्मणागए भवति। जमेयं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए मसत्त-मेव समभिजाणिया (आयारो१।८।४।६२-७४) जे भिक्खू एगेण वत्येण परिवुसिते पायविइएण, तस्स णो एवं भवइ विइयं वत्थं जाइस्सामि से अहेसणिज्जं वत्थं जाएज्जा, अहापरिग्गहियं वत्थं धारेज्जा, णो धोएज्जा... गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुण्णं वत्थं परिट्ठवेज्जा, अदुवा अचेले, एगसाडे अदुवा अचेले लाघवियं आगममाणे, ...जाव सम्मत्तमेव समभिजाणिया, जस्स णं, भिक्खुस्स एवं भवइ एगो अहमंसि, न मे अत्थि कोइ, न याहमवि कस्स, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा, लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमेच्चा सव्वओ सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया (आयारो-१।८।४।८५-९६) इसके अनुसार जिस साधु को एक पात्र और तीन वस्र रखना हो उनको ऐसा विचार न हो कि मुझे चौथा वस्त्र चाहिए। यदि तीन वस्र पूरे न हों तो निर्दोष वस्त्र की याचना जहां मिले वहां करना। जैसे निर्दोष वस्र मिले वैसे ही पहिनना परन्तु उस वस्र को धोना नहीं, रंगना नहीं, धोए हुए, रंगे हुए वस्त्र को धारण करना नहीं, ग्रामानुग्राम विचरते-विचरते वस्र को छिपाना नहीं-यह वस्रधारी मुनि का आचार है। __ जब ऐसे साधु का विचार हो कि सर्द ऋतु बीत गई है और ग्रीष्म ऋतु आ गई है अवथा क्षेत्र स्वभाव से उष्णकाल में भी सर्दी का आना सम्भव हो तो तीनों रखे या तीन में से एक छोड़े दो रखे, या दो छोड़ एक रखे या बिल्कुल न रखे। ऐसा करने से निर्ममत्व धर्म की प्राप्ति होती है, इससे लाघवपन आता है, इसको भी भगवान ने तप कहा है। वस्र रखने और वस्र न रखने में समभाव रखना । जिस साधु को ऐसा विचार हो कि मुझको शीत आदि परीषह आ पड़े हैं इनको मैं सहन करने में असमर्थ हूं तब उस स्थान पर साधु को वेहानसादिक मरण करना उचित है वहाँ ही उसकी काल पर्याय है (जैसे भक्त परिज्ञादिक काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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