Book Title: Sramana 1995 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 57
________________ लेश्या है। उत्तराध्ययन की बृहद् - वृत्ति में लेश्या का अर्थ आण्विक आभा, कान्ति, प्रभा या छाया किया गया है। 2 यापनीय आचार्य शिवार्य ने भगवती - आराधना में छाया पुद्गल से प्रभावित जीव के परिणामों (मनोभावों) को लेश्या माना है। 3 इसी आधार पर देवेन्द्रमुनिशास्त्री ने लेश्या को एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण माना है, जो मनोवृत्तियों को निर्धारित करता है। 4 डॉ० शान्ता जैन ने भी अपने शोध - निबन्ध में भगवती सूत्र ( 1/9 ) की टीका के आधार पर लेश्या को औदारिक आदि शरीरों का वर्ण माना है । वे लिखती हैं कि लेश्या एक पौद्गलिक परिणाम 15 जैनागमों में लेश्या दो प्रकार की मानी गयी है 1. द्रव्य लेश्या और 2. भाव लेश्या । अतः हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि इनमें मात्र द्रव्य लेश्या ही पौद्गलिक है, भाव लेश्या नहीं। भाव लेश्या तो द्रव्य लेश्या के आधार पर बनने वाली चित्तवृत्तियाँ हैं । इन दोनों में कार्यकारण भाव या निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध तो है किन्तु दोनों अलग-अलग है। : 1. द्रव्य लेश्या द्रव्य लेश्या सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों से निर्मित वह संरचना है, जो हमारे मनोभावों एवं तज्जनित कर्मों का सापेक्ष रूप में कारण अथवा कार्य बनती है। जिस प्रकार पित्त द्रव्य की विशेषता से स्वभाव में क्रुद्धता आती है और क्रोध के कारण पित्त का निर्माण बहुल रूप से होता है, उसी प्रकार इन सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों से मनोभाव बनते हैं और मनोभाव के होने पर इन सूक्ष्म संरचनाओं का निर्माण होता है । लेश्या द्रव्य या द्रव्य - लेश्या -स्वरूप के सम्बन्ध में आचार्य राजेन्द्रसूरिजी एवं पं० सुखलालजी 7 ने निम्न तीन मतों को उदधृत किया है है । (i) लेश्या जैन धर्म का लेश्या - सिद्धान्त : एक विमर्श : 151 -- -- -- -- द्रव्य बध्यमान कर्मप्रवाह रूप में है। यह मत भी उत्तराध्ययन की टीका में वादिवैताल शान्तिसूरि का है। (ii) लेश्या (iii) लेश्या योग परिणाम है अर्थात् शारीरिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं का परिणाम है। यह मत आचार्य हरिभद्र का है। द्रव्य कर्म-वर्मणा से बने हुए हैं। यह मत उत्तराध्ययन की टीका में मेरी दृष्टि से द्रव्य लेश्या को हम व्यक्ति का आभा मण्डल कह सकते हैं। डॉ० शान्ती जैन ने अपने शोध-प्रबन्ध में और उनसे पूर्व युवाचार्य महाप्रज्ञ ने अपने ग्रन्थ आभामण्डल ★ में इस पर विस्तार से प्रकाश डाला है । 2. भाव लेश्या - भाव लेश्या आत्मा का अध्यवसाय या अन्तः करण की वृत्ति है । पं० सुखलाल जी के शब्दों में भाव - लेश्या मनोभाव विशेष है, जो संक्लेश और योग से अनुगत है। संक्लेश के तीव्र, तीव्रतर तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि अनेक भेद होने से लेश्या (मनोभाव ) वस्तुतः अनेक प्रकार की है तथापि संक्षेप में छः भेद करके (जैन) शास्त्र में उसका स्वरूप वर्णन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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