Book Title: Sramana 1995 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 65
________________ जैन धर्म का लेश्या-सिद्धान्त : एक विमर्श : 159 के चार रंगों ( वर्णों ) का भी उल्लेख मिलता है। इसमें शूद्र को कृष्ण, वैश्य को नील, क्षत्रिय को रक्त, और ब्राह्मण को शुक्ल वर्ण कहा गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जैनाचार्य जटासिंह नन्दी ने वरांगचरित ( 7वीं शती ) में इस अवधारणा की स्पष्ट समीक्षा भी की थी । उन्होंने कहा था कि न तो सभी शूद्र काले होते हैं और न सभी ब्राह्मण शुक्ल वर्ण के होते हैं। साथ ही महाभारत में वर्गों के आधार पर जीवों की उच्च एवं निम्न गतियों का भी उल्लेख हुआ है। साथ ही सभी वर्गों की चर्चा करते हुए भी बताया गया है कि नारकीय जीवों का वर्ण कृष्ण होता है, जो नरक से निकलते हैं उनका वर्ण धूम्र होता है। मानव जाति का वर्ण नीला होता है। देवों का रक्त वर्ण होता है। अनुग्रहशील विशिष्ट देवों का वर्ण हारिद्र और साधकों का वर्ण शुक्ल होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्णों ( रंगों ) के आधार पर प्राणियों का वर्गीकरण अनेक दृष्टियों से किया गया है। योग-सूत्र एवं लेश्या-सिद्धान्त ___ इसी प्रकार पतंजलि ने अपने योगसत्र में चार जातियाँ प्रतिपादित की हैं : 1. कृष्ण, 2. कृष्ण-शुक्ल, 3. शुक्ल और 4. अशुक्ल-अकृष्ण। इन्हें क्रमशः अशुद्धतर, अशुद्ध, शुद्ध और शुद्धतर कहा गया है। उपरोक्त आधारों पर यह कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में कृष्ण और शुक्ल इन दो वर्गों की कल्पना को मनोवृत्ति, आचरण, गति आदि से जोड़ा गया । जैन दर्शन में इन्हें कृष्णपक्षी और शुक्लपक्षी कहा गया और कृष्णपक्षी को मिथ्या दृष्टि और शुक्ल पक्षी को सम्यक् दृष्टि माना गया। बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद में कृष्णधर्म और शुक्लधर्म का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि पण्डित कृष्ण धर्म का परित्याग कर शुक्ल धर्म का अनुसरण करे। आगे चलकर अकृष्ण अशुक्ल रूप निर्वाण कल्पना के साथ तीन वर्ग बनाये गये। फिर जन्म के आधार पर कृष्ण-अभिजाति और शुक्ल-अभिजाति की कल्पना का कर्म की दृष्टि से उक्त तीन अवस्थाओं से संयोग करके बौद्ध धर्म में भी छः वर्ग बने हैं, जिनकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। इस प्रकार कृष्ण और शुक्ल दोनों के संयोग से कृष्ण-शुक्ल नामक तीसरे और दोनों का अतिक्रमण करने से चौथे वर्ग की कल्पना की गयी और इस प्रकार एक चतुर्विध वर्गीकरण भी हुआ। पतंजलि और बौद्ध दर्शन में यह चतुर्विध वर्गीकरण भी मिलता है। कृष्ण और शुक्ल वर्ण के मध्यवर्ती अन्य वर्णों की कल्पना के साथ आजीवक आदि कुछ प्राचीन श्रमण धाराओं में षट् अभिजातियों की और जैनधारा में लेश्याओं की अवधारणा सामने आयी है। लेण्या सिद्धान्त एवं पाश्चात्य नीतिवेत्ता रास के नैतिक व्यक्तित्व का वर्गीकरण पाश्चात्य नीतिशास्त्र में डब्ल्य० रास भी एक ऐसा वर्गीकरण प्रस्तुत करते हैं जिसकी तुलना जैन लेश्या सिद्धान्त से की जा सकती है। रास कहते हैं कि नैतिक शुभ एक ऐसा शभ है जो हमारे कार्यों, इच्छाओं, संवेगों तथा चरित्र से सम्बन्धित है। नैतिक शुभता का मूल्य केवल इसी बात में नहीं है कि उसका प्रेरक क्या है, वरन् उसकी अनैतिकता के प्रति अवरोधक शक्ति से भी है। उनके अनुसार नैतिक शुभत्व के सन्दर्भ में मनोभावों का उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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