Book Title: Sramana 1995 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 63
________________ गीता के 16वें अध्याय में प्राणियों की आसुरी एवं दैवी ऐसी दो प्रकार की प्रकृति बतलायी गई है और इसी आधार पर प्राणियों के दो विभाग किये गये हैं। गीता का कथन है कि प्राणियों या मनुष्यों की प्रकृति दो ही प्रकार की होती है या तो दैवी या आसुरी। 18 उसमें भी दैवी गुण मोक्ष के हेतु हैं और आसुरी गुण बन्धन के हेतु हैं। 19 गीता में हमें द्विविध वर्गीकरण ही मिलता है, जिन्हें हम चाहे दैवी और आसुरी प्रकृति कहें, चाहे कृष्ण और शुक्लपक्षी कहें या कृष्ण और शुक्ल अभिजात कहें । षट् लेश्याओं की जैन विचारणा के विवेचन में भी दो ही मूल प्रकार हैं। प्रथम तीन कृष्ण, नील और कापोत लेश्या को अविशुद्ध, अप्रशस्त और संक्लिष्ट कहा गया है और अन्तिम तीन तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या को विशुद्ध प्रशस्त और असंक्लिष्ट कहा गया है। 20 उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि कृष्ण, नील एवं कापोत अधर्म लेश्यायें हैं और इनके कारण जीवन दुर्गति में जाता है और तेजों, पद्म एवं शुक्ल धर्मलेश्यायें हैं और इनके कारण जीव संगति में जाता है। 21 पं० सुखलाल जी लिखते हैं कृष्ण और शुक्ल के बीच की लेश्यायें, विचारगत अशुभता के विविध मिश्रण मात्र हैं। 22 जैन दृष्टि के अनुसार धर्म लेश्यायें या प्रशस्त लेश्यायें मोक्ष का हेतु तो होती हैं एवं जीवनमुक्त अवस्था तक विद्यमान भी रहती हैं, लेकिन विदेह मुक्ति उसी अवस्था में होती है जब प्राणी इनसे भी ऊपर उठ जाता है। इसलिए यहाँ यह कहा गया है कि धर्म लेश्यायें सुगति का कारण हैं, निर्वाण का कारण नहीं हैं । निर्वाण का कारण तो लेश्याओं से अतीत होना है। जैन विचारणा विवेचना के क्षेत्र में विश्लेषणात्मक अधिक रही है । अतएव वर्गीकरण करने की स्थिति में भी उसने काफी गहराई तक जाने की कोशिश की और इसी आधार पर यह षट्-विध विवेचन किया। लेकिन तथ्य यह है कि गुणात्मक अन्तर के आधार पर तो दो ही भेद होते हैं, शेष वर्गीकरण मात्रात्मक ही हैं और इस प्रकार यदि मूल आधारों की ओर दृष्टि रखें तो जैन और गीता की विचारणा को अतिनिकट ही पाते हैं । जहाँ तक जैन दर्शन की धर्म और अधर्म लेश्याओं में और गीता की देवी और आसुरी सम्पदा में प्राणी की मनःस्थिति एवं आचरण का जो चित्रण किया गया है, उसमें बहुत कुछ शब्द एवं भाव साम्य है। धर्म लेश्याओं में प्राणी की मनः स्थिति एवं चरित्र (उत्तराध्ययन23 के आधार पर जैन दृषटिकोण) 1. प्रशान्त चित्त 2. ज्ञान, ध्यान और तप में रत 3. इन्द्रियों को वश में रखने वाला 4. स्वाध्यायी जैन धर्म का लेश्या - सिद्धान्त : एक विमर्श : 157 5. हितैषी 6. क्रोध की न्यूनता 7. मान, माया और लोभ का त्यागी Jain Education International दैवी सम्पदा से युक्त प्राणी की मनःस्थिति एवं चरित्र (गीता 24 का दृष्टिकोण ) दृढ़ शान्तचित्त एवं स्वच्छ अन्तःकरण वाला तत्वज्ञान के लिए ध्यान में निरन्तर इन्द्रियों का दमन करने वाला स्वाध्यायी, दानी एवं उत्तम कर्म करने वाला अहिंसायुक्त, दयाशील तथा अभय अक्रोधी, क्षमाशील त्यागी For Private & Personal Use Only स्थिति www.jainelibrary.org

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