Book Title: Sirisiriwal Kaha Part 02
Author(s): Ratnashekharsuri, Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan
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________________ राया तं हीणंपि हु कम्मं दाऊण तस्स तुढिकए / अच्चंतमाणणिज्जाण तेण दावेइ तंबोलं // 652 // इओ य-जइया समुद्दमज्झे पडिओ कुमरो तया धवलसिट्ठी। तेण कुमित्तेण समं संतुट्ठो हिययमझमि / / 653 // लोयाण पच्चयत्थं धवलो पभणेइ अहह किं जायं / जं अम्हाणं पहु सो कुमरो पडिओ समुइंमि // 654 // कुमारस्य तुष्टिकृते-तोपनिमित्त हीनमपि तत्ताम्बूलदानलक्षणं कर्म दवाऽत्यन्तमानीयेभ्यः पुरुषेभ्यस्तेन श्रीपालेन ताम्बूलं दापयति // 652 // इतश्च यदा कुमारः समुद्रमध्ये पतितस्तदा धवलाख्यश्रेष्ठी तेन कुमित्रेण सम-सह हृदयमध्ये सन्तुष्टः सञ्जातः॥ 653 // लोकानां प्रत्ययार्थ-प्रतीत्युत्पादनार्थ धवलः प्रकर्षेण भणति, अहहेति खेदे किं जातं ?, कुत्सितं कार्य जातमित्यर्थः, यत् यस्मात् कारणात् अस्माकं प्रभुः-स्वामी स कुमारः समुद्रे पतितः // 654 // ६५२-अत्र कुमार सन्तोषात्म-फलेच्छाया ताम्बूलदानाधिकारप्रदानस्य विपरीततया विचित्रालङ्कारः "विचित्रं तत्प्रयत्नश्चेद्विपरीतः फलेच्छया" इति चन्द्रालोके तल्लक्षणस्मरणात् / ६५३-६५४-स्पष्टे /

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