Book Title: Sirisiriwal Kaha Part 02
Author(s): Ratnashekharsuri, Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan
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________________ वालकहा सिरिसिरि // 123 // तो धवलो सुयणो इव जंपइ सुयणू ! करेह मा खेयं / एसोऽहं निच्चपि हु तुम्हं दुक्खं हरिस्सामि // 660 // तं सोऊणं ताओ सविसेस दुक्खियाउ चिंतंति / नूणमणेणं पावेण चेव कयमेरिसमकजं / / 661 // इत्थंतर उच्छलियं जलेहिं, वियंभियं उन्भडमारुएहिं / समुन्नयं घोरघणावलीहिं, कडक्कियं रुदतडिल्लयाहिं // 662 // ततः तदनन्तरं धवलः श्रेष्ठी स्वजन इव जल्पति, हे सुतनू-हे शोभनाङ्गयौ युवा मा खेदं कुरुतं, एपोऽहं नित्यमपि हु इति निश्चितं युवयोः-भवत्योदुःखं हरिष्यामि दूरीकरिष्यामि // 660 // ततस्तद्वचनं श्रुत्वा ते IP स्त्रियौ सविशेषं दुःखिते सत्यौ चिन्तयतः, किं चिन्तयत इत्याह-नून-निश्चितं अनेन पापेन-करेणैव ईदृशं अकार्य कृतमिति ज्ञायते // 661 // अत्रान्तरे-अस्मिन्नवसरे जलैः-समुद्रपानीयैः उच्छलितं, तथा उद्भटमारुतैः-दुस्सहवायुभिर्विजृम्भितं विस्तृतं, तथा घोरघनावलीभिः-भयानकमेघमालाभिः समुन्नतं-उन्नम्यागतं, ६६०-अत्र “एषोऽहं निश्चयेन युष्माकं दुःखं हरिष्यामीत्युक्त्या ताः प्रति तस्य स्वपत्नीत्वाभिलाषो 15 व्यज्यते / ६६१-अत्र नामां सविशेषदुखितत्वे धवलवाक्यश्रवणस्य कारण नया कथनात् काव्यलिगमलङ्कारः। ६६५--मत्र धवलान्यायाचरण जनितत्वमुत्पातस्य "तदुदितं स हि यो यदनन्तरः" इति न्यायेन गम्यते, लाकेऽपि महापापादो कृते दुर्भिक्षादि दर्शनात् / // 123 //

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