Book Title: Shwetambar Jain Tirth Darshan Part 01 Author(s): Jinendrasuri Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala View full book textPage 4
________________ 卐 प्रस्तावना श्री अरिहंत परमात्माओने आत्म कल्याण हेतु धर्म फरमाया है । यह धर्म का दो प्रकार है, एक साधु धर्म एक श्रावक धर्म । इन धर्मकी श्रद्धा होने उसको सम्यग्दर्शन कहा जाता है । इस सम्यग्दर्शनको पानेवाले को इस धर्म का विधान करने वाले श्री अरिहंत परमात्माका बड़ा उपकार लगता है । इसको श्री तीर्थंकर देवो की प्रति अखंड और अनन्य समर्पण भाव पैदा होता है और वह श्री तीर्थंकर देवों की भक्ति में उत्साहित होता है । यह भक्ति में जिनपूजा, यात्रा महोत्सव, मंदिर निर्माण, प्रतिष्ठा, जीर्णोद्धार आदि से करता है। शक्ति या शक्यता अनुरुप भक्ति करते । उसके जीवन में व्रत, नियम, ज्ञान, तप, संस्कार, सदाचार, नीति, न्याय, कषाय जय विषय, जय अपनाना है। इनके बिना भक्ति भी सार्थक बनती नहीं। आत्माने तारे वह तीर्थ है वह तीर्थ दो प्रकार के है । स्थावर और जंगम । स्थावर तीर्थ श्री शेजय, गीरनार आदि जिनमंदिर और जिनमूर्ति आदि है । और जंगम वह फीरता तीर्थ श्री जिनेश्वर देव गणधर देव और साधु साध्वी है। स्थावर तीर्थ की भक्ति वो द्रव्य स्तव है | द्रव्यस्तव करते जंगम तीर्थ भाव तीर्थ में प्रवेशने का भाव होवे तब ही सार्थक बनता है। तारक द्रव्य तीर्थकी स्पर्शना वो द्रव्यस्तवना भावस्तवन के प्रेरक बने इस लिये यह श्वेतांबर जैन तीर्थ दर्शन का आयोजन हुआ है । इस तीर्थ दर्शन से अपने घर में ही तीर्थों और तीर्थंकर परमात्माओं का दर्शन स्तवन आदि कर सकेंगे। भारत एवं विश्वके जैन तीर्थों का संकलन करना तय किया । इसके वास्ते तीर्थोंका फोटु इतिहास आदि के वास्ते बार बार जाके प्रतिनिधि मंडलने सामग्री एकत्रित की उसमें से ओर मद्रास जैन तीर्थ दर्शन, जैन तीर्थ इतिहास (आ.क. पेढी), जैन तीर्थ माहितीकी पुस्तिकाएं, तारे ते तीर्थ पुस्तके वगैरह द्वारा संकलन किया है। जिल्ला के तीर्थ का नकसे जाने आने के क्रम से दीये है। जहां जहां जगह रही वहां वहां स्तुति, स्तवन, श्लोक आदि लगाये है । जिसे दर्शन करते स्तुति, स्तवनादि कर सके । पूर्व के तीर्थ दर्शन ग्रन्थों में बड़े तीर्थो प्रायः दीये है जब इस ग्रन्थ में वीर्ष की पंचतीर्थी ओर बडे बडे शहर आदि के मंदिर भी लिये गये है। अतः दोनो विभागमें सब मीला के ५८८ तीर्थ का समावेश किया है और इतने धर्म तीर्थों दर्शन होगा। सम्यग्दर्शन की निर्मलता हेतु यात्रा है। अतः यात्रा करनेवालोने प्रथम ही तप वगैरह करना चाहिए । सतत तप न हो सके तो श्रावक आचार के शक्य पालनके साथ अभक्ष्य भक्षन, रात्रि भोजन छोडे और नाटक, सिनेमा देखना सैलगाह और स्वछंद विहार आदि न जावे सो लक्षमें रखना चाहिए। ६८ तीर्थ की यात्रा हेतु जानेवाले क्रोधी पुत्रको माताने कटू तुंबी दीया और कहा कि जहां तुं स्नान करें वहाँ इस तुंबीको भी स्नान करायें । इसने भी सभी तीर्थो में स्नान करते समय इस तुंबीको भी स्नान कराया । वापस आते माता को दी । माताने उसी तुंबी की सबजी बनाई ओर उनको खिलाई । पुत्र बोला । माँ, यह सबजी तो कटु है ' | माँ ने कहा तीर्थं इसको स्नान नहीं कराया क्यों ! माँ मेंने सभी तीर्थं में इसको स्नान कराया है ! बेटा तो भी कटुता नहीं गइ ? ' ना माँ बेटा तब देख स्नान करने पर भी हृदयPage Navigation
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