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जैन महाभारत
शयनागार मे चले गए। आगे दुर्योधन था, पीछे अर्जुन । उस समय । श्री कृष्ण सो रहे थे। दुर्योधन जाते ही उनके सिरहाने रक्खे एक , ऊचे आसन पर जा बैठा, परन्तु अर्जुन जो पीछे था, श्री कृष्ण के पैताने ही हाथ जोडे खडा रहा।
कुछ देर बाद श्री कृष्ण की निद्रा भग हुई, तो सामने खड़े अर्जुन को देखा। उठ कर उसका स्वागत किया और कुशलं पूछी। बाद मे घूम कर आसन पर बैठे दुर्योधन को देखा तो उसका भी स्वागत किया कुगल समाचार पूछे। उसके बाद दोनो स उन के आने का कारण पूछा। . . . . .
दुर्योधन शीघ्रता से पहले बोल उठा--"श्री कृष्ण ! ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे तथा पाण्डवो के बीच जल्दी ही कोई महा युद्ध छिड ज येगा। यदि ऐसा हुआ तो मै आप से. प्रार्थना करने पाया है कि ग्राप मेरी सहायता करें।''
श्री कृष्ण बोले . परन्तु मेरे लिए तो पाण्डव-तथा कौरव दोनो ही स्नेही है।"
"यह ठीक है कि पाण्डव तथा कौरव दोनों पर ही आपका समान प्रेम है- दुर्योधन ने कहा-और हम दोनो को ही आप से सहायता प्राप्त करने का अधिकार है। परन्तु सहायता की याचना करने पहले मैं आया। पूर्वजा से यह रीति चली आई है कि जो पहले भाये,उसी का- काम पहले हो। और आज भी सभी सद्बुद्धि प्रतिष्ठित सज्जन इसी रीति पर अमल करते हैं । औरआप सज्जनो,मे श्रेष्ठ है. अत बडो की चलाई रीति के अनुसार आप को पहले मेरी प्रार्थना स्वीकार करनी चाहिए।"
श्री कृष्ण ने अर्जुन की ओर देखा। . .
अर्जुन बोला - "दुर्योधन जिस उद्देश्य को लेकर यहां पधार है, मैं भी उसी उद्धेश्य से आया है। यदि दुर्योधन ने शाति वार्ता स्वीकार न की तो युद्ध होगा, उस में आप हमारी सहायता करें।
दुर्योधन ने कहा-"श्री कृष्ण ! प्राप को पहले मेरी याचना