Book Title: Shrutsagar Ank 2012 07 018
Author(s): Mukeshbhai N Shah and Others
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वि.सं. २०६८ आषाढ़ ९ चार बार पढ़ना है। ऐसा लिखने के पीछे हस्तप्रत लेखकों का मुख्य ध्येय कागज़ एवं स्याही और समय की बचत करना जान पड़ता है । कई स्थानों पर हस्तप्रत के मार्जिन हाँसिया वाले क्षेत्र में ओली ऊ. अथवा पं. ऊ. या ओली नी 6 अथवा पं. नी. 6 लिखा हुआ भी मिलता है जिसका मतलब है कि ऊपरवाली पंक्ति से ओली या पंक्ति-संख्या में कोई नई बात दर्शाई गई है या मार्जिन हाँसिया में लिखे हुए शब्द को पंक्ति-संख्या में जोड़ना है। इसलिए ऐसा संकेत दिया जाता था। इसी प्रकार ओली. नी. 6/पं. नी. 6 का मतलब भी होता है कि नीचे से पाँचवीं पंक्ति में कुछ घटाना-बढाना करना है। गलत वर्ण या वाक्यों को हटाने के नियम : हस्तप्रत-लेखन के समय यदि कोई अक्षर या मात्रा दो बार लिख गया हो या गलत लिख गया हो तो उसे हटाने हेतु उस अक्षर के ऊपर 'U' इस प्रकार की दो लाइनें बना दी जाती थीं जिसका मतलब होता है इस वर्ण को नहीं पढ़ा जाए । यथा कमल लिखते समय कामल लिख गया है तो 'आ' की मात्रा को हटाने के लिए इस प्रकार लिखते हैं-कीमल अर्थात् अब इसे कामल न पढ़कर कमल पढ़ा जाए। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कई हस्तप्रतों में जिस अक्षर को निकाल देना हो तो 'L' इस प्रकार का चिह्न न लगाकर उस अक्षर की शिरोरेखा को मिटा दिया जाता था। इसका मतलब भी यही होता है कि यह अक्षर पढ़ा न जाये। इसी प्रकार 'कु' अर्थात् 'क', 'कि' अर्थात् 'क' 'के' अर्थात् 'क' समझें प्राप्नुवन्ति अर्थात् प्राप्नुवन्ति सही है। अंसिंगतो अर्थात् आसिंगतो। हस्तप्रत में अनेक स्थानों पर यदि पत्र जिस पर लिख रहे हैं वहाँ स्थाही फैल रही है या अक्षर लिखा नहीं जा सकता हो तो वहाँ पर अंग्रेजी के 'S' की तरह का चिह्न बनाया हुआ मिलता है यथा- ' ssss' अर्थात् इतने स्थान में लिखना मुश्किल है इस लिए इस प्रकार का चिह्न बना दिया गया है। कई स्थानों पर इस प्रकार के चिह्न भी मिलते हैं। इनका मतलब भी यही है । नया अक्षर या मात्रा जोड़ने के नियम हस्तप्रत लेखन के समय यदि किसी शब्द में से एक अक्षर या मात्रा छूट गया है तो उस स्थान पर नया अक्षर या मात्रा जोड़ने हेतु गणित की संख्याओं का उपयोग भी किया हुआ मिलता है या एक छोटा-सा चिह्न भी दो अक्षरों के बीच में लगा हुआ मिता है जो इस प्रकार है- यदि कमल लिखना है और प्रमादयश कलम लिख गया है तो इस प्रकार लिकते हैं कलेमं अर्थात पहले 'म' और फिर 'ल' यदि तेसिं या महावीरेणं लिखना है लेकिन तेसे या महावरेण लिख गया है तो 'इ' या इस प्रकार लिखा हुआ मिलता है- ते अर्थात् तेसिं, महाये रेणं अर्थात् महावीरेण । कई स्थानों पर 'आ' की मात्रा लगाने हेतु एक अलग प्रकार का ही चिह्न मिलता है जो इस प्रकार है-यदि कासीराया लिखना है लेकिन 'कसीराया' लिख गया है तो कंसीराया इस प्रकार का चिह्न लगा हुआ मिलता है जिसका मतलब है- यह शब्द 'कसीराया' न पढ़कर कासीराया पढ़ा जाए। कई स्थानों पर वाक्य या शब्द की निरन्तरता को दर्शाने हेतु L इस प्रकार के चिह्न भी मिलते हैं जिनका मतलब है 'स' यथा कल्याणकारी लिखने हेतु कल्याणकारी ऐसा मिलता है इस चिह्न से कई बार 'आ' की मात्रा का भ्रम भी होता है। ग्रन्थ- समाप्ति पर मिलनेवाले चिह्न : पढ़ा जाये अर्थात् 'कमल' 'ई' की मात्रा लगाने हेतु : ग्रन्थ पूर्ण होने पर || ॥ ळ ॥ € 0 3 W " इस प्रकार के या ॥छ । या इस प्रकार के चिह्न मिलते हैं जो मुख्यतया 'पुष्पिका वाक्या' के बाद बनाए हुए मिलते हैं। इनका मतलब है कि ग्रन्थ यहाँ पूर्ण हो गया है और ये एक प्रकार से अन्तिम मङ्गल के सूचक चिह्न माने जाते हैं। पाण्डुलिपियों में अध्ययन, उद्देश्य, श्रुतस्कन्ध, सर्ग, उच्छ्वास परिच्छेद, लम्भक, काण्ड आदि की समाप्ति को एकदम ध्यान में बैठाने के लिए भी इसी प्रकार की चित्राकृतियाँ बनाने की परिपाटी थी। कहीं-कहीं ग्रन्थ के अन्त ग्रन्थकर्ता अथवा लहिया द्वारा कष्टसाध्य ग्रन्थों के रक्षण हेतु निम्नोक्त श्लोक लिखा हुआ मिलता है भग्नपृष्ठिकटिग्रीवा मन्द ( वक्र) दृष्टिरधोमुखम् । कष्टेन लिख्यते शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत । । इति । For Private and Personal Use Only

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