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वि.सं.२०७८-४ ग्रंथ समीक्षा
डॉ. हेमन्त कुमार ग्रंथ नाम - जैन पूजा साहित्य
लेखक - डॉ. फाल्गुनी झवेरी प्रकाशक - श्री मुंबई जैन युवक संघ आवृत्ति - प्रथम
प्रकाशन वर्ष . २०१२ सुश्राविका डॉ. फाल्गुनीबेन झवेरी द्वारा लिखित जैन पूजा साहित्य नामक ग्रंथ में लेखिका ने जिनभक्ति व पूजा-अर्चना से संबंधित विषयों को संकलित कर गागर में सागर भर दिया है. श्री चतुर्विध संघ में आवश्यक क्रियाओं में जिनपूजा का विशिष्ट महत्त्व है. विभिन्न कालों में विभिन्न जैनाचायों द्वारा अनेक भारतीय भाषाओं में जिनपूजा की रचनाएँ की गई हैं, जो आज सुमधुर संगीत के साथ जन-जन के लिये भक्तिगंगा बनकर मन को पावन कर रही हैं तथा आध्यात्मिक मार्ग में बहूपयोगी हैं.
पी-एच. डी. की उपाधि हेतु तैयार किया गया गुजराती भाषाबद्ध यह शोधप्रबंध पाँच प्रकरणों एवं दो परिशिष्टों में विभक्त है. शोधप्रबंध में संकलित विषय लेखिका की जिनभक्ति की गहराईयों का परिचय कराते हैं. समय-समय पर विभिन्न भाषाओं एवं कर्ताओं द्वारा रचित पूजाओं का परिचयात्मक सामग्री जहाँ एक ओर वाचकों को भक्ति की गंगालहरी में डुबकियाँ लगाने में आनन्ददायक सिद्ध होगा तो दूसरी ओर खूब परिश्रम एवं संशोधनपरक तथ्यों से युक्त यह कृति अन्य शोधप्रबंधों की तरह विश्वविद्यालय के ग्रंथालयों की शोभामात्र न बनकर जैन व प्राच्यविद्या के क्षेत्र में शोध करनेवालों के लिये मार्गदर्शिका का कार्य भी करेगी.
डॉ. झवेरी ने जिनपूजा की ऐतिहासिकता एवं आध्यात्मिकता को एक सूत्र में बांधने का कार्य बड़ी ही कुशलतापूर्वक किया है, जो वीतराग प्रभु के प्रति उनकी प्रबल भक्तिभाव का परिचायक है. प्रस्तुत ग्रंथ में जिनपूजा के विषयों को बड़ी ही सरल भाषा और प्रखर शैली में प्रस्तुत किया गया है, जिसमें न केवल भक्तिभाव बल्कि जैन दार्शनिक तथ्यों व तीर्थंकरों का सर्वांगीण परिचयात्मक विषयों का समावेश भी होता है, ___ जिनपूजा का क्षेत्र अत्यन्त विशाल एवं समृद्ध है. उनसे संबंधित सूचनाओं के विस्तृत संकलन का कार्य अपने आप में समुद्रमंथन जैसा है. यह कार्य वही कर सकता है, जिसे जिनेंद्रभक्ति एवं जैनधर्म में गहरी पैठ हो तथा संगीत से प्रेम हो. संसार की असारता को समझाने एवं हृदय में अलौकिक आध्यात्मिकता का भाव उत्पन्न करने के उद्देश्य से पूज्य श्रमण भगवंतों ने तत्कालीन जनभाषा में जैनतत्त्व-दर्शन एवं वीतराग परमात्मा का वर्णन विभिन्न पूजाओं के माध्यम से किया है, जिसमें संगीत की मधुरता का सम्मिश्रण होने से वे सभी पद जन-जन के लिये गेय हुए और भक्त के मन में सीधा असरकारक सिद्ध होते गये.
प्रस्तुत शोधग्रंथ में प्राचीन मध्यकालीन व अर्वाचीन भक्त कवियों के द्वारा रचित पूजा काव्यों की रमणीयता. विशिष्टता व काव्यात्मकता का सुंदर परिचय दिया गया है. पूजा काव्यों में प्रयुक्त उपमाओं, दृष्टांतों, रूपकों, श्लेष शब्दानुप्रास, अन्त्यानुप्रास, वर्णानुप्रास आदि विविध अलंकारों के सुंदर प्रयोग, साहित्यिक कौशल्य आदि पर भी प्रकाश डाला गया है. रांगीत-नृत्य तथा गीतों में प्रवाहित भाववाहिता, सादृश्यता व चित्रात्मकता की मनोरम झाँकी का भी वर्णन किया गया है. विक्रम की प्रथम सदी से ईक्कीसवीं सदी के मध्य प्राप्त होने वाले भाषा के स्वरूप, धार्मिक, सामाजिक व राजकीय व्यवस्था, रीति-रिवाज व आचार-विचार आदि का भी प्रभाव इन पूजा काव्यों में देखने को मिलता है.
पूजा में आने वाले विविध परिबलों पर सम्यक रूप से प्रकाश डाला गया है. पैंतालीस आगम की पूजा शुद्धरूप से ज्ञानमार्ग की पूजा है तो नवतत्त्व की पूजा में जैनधर्म के हार्द स्याद्वाद का निरूपण किया गया है. चौंसठ प्रकारी पूजा कर्मसिद्धांत जैसे विशाल गुह्य तथा गहन सिद्धांतबोध को दर्शाती है, तो यशोविजयजी कृत पूजाष्टक में अद्भुत रूप से प्रत्येक वस्तु विकल्पों से प्रारंभ कर निर्विकल्प आत्मस्वभाव तक पहुँचने का प्रयत्न किया गया है.
अंत में पूजा से प्राप्त होने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभाव, सामाजिक चेतना तथा मानव कल्याण की भावना को बड़े ही प्रभावक ढंग से प्ररूपित कि । गया है. इसके साथ ही पूजा के बाधक व घातक परिबलों तथा अर्वाचीन जिनपूजा पद्धति में व्याप्त विकृतियों पर भी प्रकाश डाला गया है.
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