________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
મે ૨૦૧૨
૧૨
जिनचैत्यों में विराजमान जिनबिम्बों को स्तवन करने से भवपार होता है | ११ | इन्द्राणी सहित सौधर्मेन्द्र ईशानेन्द्र की राजधानी नंदीश्वरद्वीपस्थित दक्षिण व उत्तर में क्रमशः ८३८३१६ जिनप्रासाद में विराजमान जिनप्रतिमाओं को नमस्कार हो । १२ ज्योतिष तथा व्यंतर को छोड़कर त्रिभुवन में जिनचैत्यमान कुल ८५७००२८२ हुआ | १३ | ज्योतिष व व्यंतर स्थान के बिना त्रिभुवन की प्रतिमा का मान कुल १५४२५८३६०८० (पंद्रहसी बयालीस करोड, अट्ठावन लाख, छत्तीस हजार अस्सी) संख्याप्रमाण जिनप्रतिमाओं को निशिदिन भक्त वंदना करें, जिससे कल्याण प्राप्त होता है । १४-१५ । भरत महाराजा कारित अष्टापद, गिरिनार, आबू, शत्रुंजय, राजगृह, वैभारगिरि, विपुलगिरि, उदयगिरि तथा समेतशिखर स्थित सभी जिनप्रतिमाओं को भावपूर्वक वंदना करता ।१६-१७। तपगच्छ नायक श्रीविजयदानसूरि के शिष्य हर्षसागर ने शास्वत जिनप्रासाद, जिनप्रतिमा का स्तवन बनाया. जो नरनारी इस स्तवन को पढ़ेगा यह देवमनुष्य का सुख अनुभव कर अन्त में मोक्षसुख को प्राप्त करेगा.
हस्तप्रत परिचय संभवतः हस्तप्रत की यह कृति अप्रकाशित हे प्रतिलेखन पुष्पिका का उल्लेख नहीं है. लेखन संवत का भी उल्लेख नहीं है. लेकिन प्रत की लिखावट के आधार पर प्रतीत होता है कि लेखन समय वि.सं. १८वीं सदी का होना चाहिये, लिखावट सुंदर व सुवाच्य है. शुद्धतापूर्वक लिखा गया है. इससे प्रतीत होता है कि किसी विद्वान साधुभगवंत ने कर्मनिर्जरा के शमन हेतु तथा जिनभक्ति व श्रुतमक्ति में अपनी अटूट श्रद्धापूर्वक यह लेखन कार्य किया है. सांख्यिक शब्दों की स्पष्टता के लिये अंकवाले शब्द के पास या पंक्ति के अंत में अंकमय संख्या दी गयी है.
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिरगत श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण हस्तप्रत भांडागार में इस कृति की दो प्रतें हैं, उनमें से संपादन हेतु इस प्रत का चयन किया गया है. इसकी प्राथमिक जानकारी इस प्रकार है
T
हरतप्रत संख्या ४९९५२ प्रतनाम शास्यतजिनप्रतिमा स्तवन प्रत प्रकार छुटे पत्र पूर्णता संपूर्ण, पत्रांक१. प्रत की लंबाई- २५.५० से.मी. व चौड़ाई- ११.५० से. मी., प्रत पंक्ति ११ प्रत्येक पंक्त्यक्षर संख्या ५०, लेखन संवत्- वि.सं. १८वी अनुमानित प्रत की स्थिति मध्यम प्रत की लाक्षणिकता- फुल्लिका मध्य-वापी-खाली, पार्श्व रेखा - कालाउ प्रत की भौतिक दशा - किनारी अधिक उपयोग के कारण खंडित है, पानी से विवर्ण, कीटाणुकृत छिद्र - अल्प मात्रा में, लिपि - जैनदेवनागरी व लेखन पदार्थ कागज.
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कृति परिचय - कृतिनाम- शाश्वतजिनप्रतिमा स्तवन कर्तानाम - मुनि श्रीहर्षसागर, कर्ता के गुरु का नामविजयदानसूरि गच्छाधिपति गुरु का समय- वि. १६०२ गच्छ-तपागच्छ, कर्ता का अनुमानित समय-वि. १७वी. कृति का स्वरूप मूल भाषा मारुगुर्जर, कृति प्रकार पय गाथा २०.
·
कृति का आदिवाक्य सयल जिणेसर पय नमि पछइ निज गुरु सार रे
हर्षसागर० पछइ सीवसुख सार रे
कृति का अंतवाक्य कृति के संदर्भ में कृति की भाषा सरल व रोचक है. मध्यकाल की गुजराती भाषा है, जिसे पढ़ते ही सामान्य देशी भाषा के ज्ञाता भी इसका अर्थ समझ सकते हैं, पाठ पढते ही भाषा की प्राचीनता स्पष्ट हो जाती है. कृति प्रकार स्तवन होने से गेय है. इसके साथ ही शास्वतजिन प्रतिमाओं के स्मरण व चैत्यवंदनादि हेतु यह रचना उपयोगी है. शत्रुंजय, समेतशिखर, राजगृह, वैभार, आबू, गिरनार आदि शाश्वततीर्थों की वंदना भी शामिल है. इसे पढते व गाते हुए पाठकों के मन में शास्वत जिनप्रतिमा व तीर्थों के प्रति अटूट श्रद्धा बढती है.
हस्व / दीर्घ इ-ईकार व एकार मात्रा की जगह 'इकार', 'ओकार' मात्रावाले शब्दों में 'ओकार' की जगह 'उकार' इस प्रकार पाठ मिलते हैं, जो प्रायः मध्यकालीन गुजराती भाषा में पाए जाते हैं. इन भाषाओं के प्रयोग खरतरगच्छीय मेरुसुंदर रचित शीलोपदेशमाला - बालावबोध आदि ग्रंथों में मिलते हैं.
लगभग वि.सं. १४वीं से १६वीं के बीच बोली जानेवाली भाषा प्रतीत होती है.
"
-
For Private and Personal Use Only
शास्वतजिन प्रतिमा संबंधी उपलब्ध रचना आचार्य देवेन्द्रसूरि रचित प्राकृत भाषाबद्ध शास्वतचेत्य स्तद तथा चत्तारिअट्ठदसदोयजिन स्तवन है. इसमें शास्वतजिनप्रतिमास्थान, प्रतिष्ठापक, प्रतिमाओं की संख्या आदि का सुंदर वर्णन है. उपा. विनयविजयजी रचित प्राकृत में परिपाटी चतुर्दशक ( चत्तारिअट्ठदसदोयगाथा स्तोत्र ) इसके बाद खरतरगच्छीय उपाध्याय समय सुंदरगणि रचित मारुगुर्जर भाषामय शारवती चैत्यप्रतिमा स्तवन है. अलमिति विस्तरेण सुज्ञेसु किं बहुना