Book Title: Shrutsagar Ank 2012 04 015
Author(s): Mukeshbhai N Shah and Others
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 12
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० એપ્રિલ ૨૦૧૨ निर्मित तीन प्रतिमाओं की अंजनशलाका कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य के हाथों सम्पन्न हुई थी. उसमें एक प्रतिमा श्री गोडीजी पार्श्वनाथ की भी थी, जो बड़ी चमत्कारी सिद्ध हुई. कालक्रम से यह प्रतिमा झींझुवाड़ा के सेठ गोडीदास के गृहमंदिर में पूजी जाने लगी. एक बार दुष्काल के कारण सेट गोडीदास तथा सोढ़ाजी झाला मालव गये हुए थे. यहाँ से वापस आते समय किसी स्थान पर रात्रि-निवास किया. वहाँ सिंह नामक एक कोली (आदिवासी) ने सेठ की हत्या कर दी. यह घटना जानने के बाद सोदाजी ने उस कोली को भी मार डाला. सेठ गोडीदास मरकर व्यंतर निकाय के देव बने और अपने गृह-मंदिर में स्थित भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा के अधिष्ठायक बने. तब से यह प्रतिमा गोडीजी पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुई. इसी प्रतिमा के अधिष्ठायक देव ने सोदाजी को सुखी बनाया. सोढाजी इस प्रतिमा को अपने घर ले आये और भक्तिभाव से दर्शन-पूजन करने लगे. बाद में वे झिंझुवाडा के राजा और गुजरात के महामंडलेश्वर भी बने. अधिष्ठायक देव के सानिध्य वाली इस प्रतिमा के प्रभाव से सोढाजी के भाई मांगु झाला ने अपनी बहन फूला कुंवरी की भूत-बाधा दूर की थी. तत्पश्चात यह चमत्कारी प्रतिमा कुछ काल तक पाटण में रही. वि. सं. १३५६-६० के दौरान बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी के भाई अलफखान द्वारा चढ़ाई के समय यह प्रतिमा भूगर्भ में रखी गई. वि. सं. १४३२ में एक दिव्य संकेत से पाटण के सूबेदार हसनखान (हीसायुद्दीन) को यह प्रतिमा भूगर्भ से प्राप्त हुई और उसने सूबेदार की बीबी, जो जैन श्राविका थी, उसे दे दी. उसके द्वारा यह प्रतिमा पूजी जाने लगी. कुछ समय के पश्चात स्वप्न संकेत के अनुसार यह प्रतिमा नगरपारकर के सेठ मेघा को अर्पित की गई. वहाँ पर पाटण से ले जाते समय रास्ते में जो-जो गाँव आये वहाँ पर पादुका के रूप में इस प्रतिमा की स्थापना की गई जो वरखडी के नाम से जाना जाता है. वि. सं. १४४४ में नगरपारकर में मंदिर बनवा कर इस प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया और तब से गोडीजी पार्श्वनाथ का तीर्थ स्थापित हुआ. इस प्रकार गोडीजी पार्श्वनाथ की मूल प्रतिमा का छ: सौ वर्ष प्राचीन इतिहास अत्यन्त प्रभावपूर्ण रहा है. इसके बाद तो पूरे भारतवर्ष में अनेकों स्थानों पर गोडीजी पार्श्वनाथ के भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ है. परन्तु उन सभी मन्दिरों में पायधुनी के इस मंदिर का स्थान अग्रगण्य है. मुंबई महानगर के इतिहासकारों ने श्री गोडीजी पार्श्वनाथ मंदिर को सर्वप्रथम फोर्ट विस्तार में होना स्वीकार किया है. उस जिनालय का विनाश होने पर पायधुनी विस्तार में मंदिर निर्माण करके वि. सं. १८६८ के द्वितीय वैशाख सुद १० के दिन श्री विजय देवसुर गच्छ के यति श्री पूज्य देवेन्द्रसूरिजी के कर-कमलों से इस प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया गया. उस समय घोघा के सेठ कल्याणजी कानाजी ने बोली बोलकर इस प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा की थी. मुंबई के सबसे प्राचीन जैनतीर्थ स्वरूप गोडीजी जिनालय को आज दो सौ साल पूरे हो रहे हैं, जो हम सभी के लिए अत्यन्त आनन्द और गौरव का अनुपम अवसर है. जबसे इस प्रतिमा की गोडीजी जैन मंदिर में प्राणप्रतिष्ठा हई है, तबसे इस क्षेत्र का पुण्यप्रभाव उदय हुआ है. सकल श्रीसंघ की सर्वतोमुखी उन्नति हुई है और जैन समाज की संख्या एवं उनकी उन्नति दिन-ब-दिन बढ़ती ही गई है. गोडीजी जैन मंदिर की विशिष्टता गोडीजी महाराज जैन मंदिर के निर्माण के २०० वर्ष व्यतीत हो गये हैं. इस मंदिर की विशिष्टता है कि इसके निर्माण में मुख्यतः विशिष्ट प्रकार की लकड़ियों का प्रयोग हुआ था, और उन लकड़ियों पर सुंदर कलाकृतियों को उत्कीर्ण किया गया था. मंदिर के स्तम्भ एवं ऊपरी भाग में चित्रित नर्तकियों, पुतलियों आदि के चित्र विशिष्ट कलाकृति के प्रतीक थे. इस मंदिर का जिर्णोद्धार समय-समय पर होता रहा है. अब यह मंदिर संपूर्ण श्वेत संगमरमर में कलात्मक नक्काशी से सजा हुआ, अत्यंत भव्य एवं मनोहर लगता है. मंदिर में प्रयुक्त काँच पर की गई चित्रकारी भी इसकी शोभा में चार चाँद लगाते हैं. यह दो मंजिला मंदिर भव्य एवं विशाल है. मंदिर के गर्भगृह For Private and Personal Use Only

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