Book Title: Shrutsagar Ank 1996 04 003
Author(s): Manoj Jain, Balaji Ganorkar
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 5
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, वैशाख २०५२ पृष्ठ ६ का शेष आचार्य हरिभद्रसूरि..... और अग्निशर्मा के भवों की घटनाएं संकलित थी जिनका तात्पर्य था कि (ग्रंथावलोकन) "वैर का अनुबंध भव-भवान्तर तक चलता रहता है अतएव क्रोध उचित है?" आचार्य हरिभद्रसूरि का क्रोध इन गाथाओं को पढ़ने से शांत भीमसेन चरित्र षड्रस से परिपूर्ण उत्तम चरित्र ग्रंथ है. इसमें आत्म-तत्त्व हो गया और अपने क्रोध (कषाय) के प्रायश्चित्त स्वरूप अपनी शिष्य संतति की प्राप्ति हेतु भव निर्वेदकारक व अनेकानेक आत्म-गुण पोषक तथा दुर्गुण शोषक के स्थान पर उन्होने ज्ञान संतति के विकास की ओर ध्यान केन्द्रित किया. कास की ओर ध्यान केन्द्रित किया. भाव बहुत ही सहजता से प्रस्तुत किये गए हैं. अपने कषाय की उपशान्ति होते ही प्रायश्चित के रुप में उन्होंने १४४४ प्रस्तुत ग्रंथ में नीति,न्याय, परोपकार,सेवा, सदाचार,क्षमा,तप, शील, आदि ग्रंथ निर्माण करने की प्रतिज्ञा ली थी, तदनुसार ज्यादातर ग्रंथों की रचना | आदर्शों का यत्र तत्र प्रसंगोपात दर्शन होता है. कर डाली किन्तु अपने मनुष्य जीवन का मर्यादित समय जानकर शेष ग्रंथों । इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं कि द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग के सृजन में वे दिन-रात व्यस्त रहने लगे. एवं धर्मकथानुयोगमय स्वयंभूरमण समुद्र तुल्य गहन सागर में श्रुत ज्ञान से बाल ___ ग्रन्थनिर्माण का कार्य निरन्तर जारी रहा. परन्तु श्रुतसागर को जीवों पर धर्मकथानुयोग द्वारा सविशेष सुगम उपकार सम्भव है.. ग्रन्थस्थ करना कितना कठिन होता है, वह जानते थे. एक दिन जब वस्तुतः धर्मकथानुयोग, सरस और सुग्राह्य होने से बा।क, युवा, प्रौढ, सभी आचार्यश्री चिन्तामग्न मुद्रा में कुछ सोच रहे थे तब वंदन करने आए उनके | उत्कंठा से पढ़ते हैं. उसमें वीर रस, करुण रस, एवं शांत रस आदि सभी रसों एक श्रावक लल्लिग ने परम विनय से विनती की कि हे गुरु भगवन्त आप | का सुंदर, भावात्मक, हृदयस्पर्शी विवेचन होने के कारण निस्संदेह भव्य जनों के चिन्तित क्यों हैं ? आग्रहवश आचार्यश्री ने बताया कि मेरा आयुष्य | लिए उपयोगी सिद्ध होता है. भीमसेन चरित्र में ये सभी गुण विद्यमान है. जलबिन्दुवत् है और मैं इतने विशाल श्रुत ज्ञान को ग्रन्थस्थ कैसे कर इस ग्रंथ में वर्णित कल्याणदायी धर्मकथा का श्रद्धा भाव से श्रवण, मनन और पाऊँगा? यह सोचकर मुझे चिन्ता हो रही है क्योंकि सूर्य प्रकाश में ही | अनुशीलन किया जाय तो हिंसा, असत्य, चौर्य आदि पापाचरणों के फलस्वरुप यह प्रवृत्ति होती है, जो बिल्कुल मर्यादित है. आचार्य भगवन्त की निःस्वार्थ | संसारवर्धक कषायादि अशुभ परिणाम नष्ट होते हैं तथा अहिंसा, सदाचार आदि वेदना का रहस्य पाते ही लल्लिग ने कहाः भगवन्त आप इस चिन्ता को | के फलस्वरूप एकांतिक आत्महितकारी परिणामों की प्राप्ति होती है. परिणामशुद्धि छोड़ दीजिये, मैं सब सम्भाल लूँगा, आप अपनी श्रुतआलेखन प्रवृत्ति में जब पूर्ण स्वरूप में विकसित होती है तब जीव शिवपद प्राप्ति का अधिकारी बनता मग्न हो जाईये. उसने अपने पूर्वजों द्वारा संग्रहित अनेक जात्यरत्नों को है. आचार्य के श्रुत कक्ष में खचित कर दिया. ताकि रात दिन एक जैसे ही | भीमसेन चरित्र' का सर्जन संस्कृत एवं गुजराती भाषा में भी स्वतंत्ररूप से रत्नों के स्वाभाविक प्रकाश में ज्ञानाराधन प्रवृत्ति निराबाध चलती रहे. अष्टोत्तरशत ग्रंथ प्रणेता परम शासन प्रभावक योगनिष्ठ आचार्य भगवंत श्रीमद् श्रावक की श्रुत भक्ति गुण की प्रगाढ़ता के इस प्रसंग से पता लगता | बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज के पट्टाधिकारी पूजनीय विद्वान् शिष्यरत्न प्रसिद्ध है कि जैनत्व की प्राप्ति कितनी विवेक पूर्ण होती है.आचार्यश्री | वक्ता आचार्य श्री अजीतसागरसूरीश्वरजी महाराज ने किया है. गुजराती भाषा हरिभद्रसूरिजी ने अपने जीवनकाल के दान १४४४ ग्रंथ निर्मित किये समझनेवालों को यह मूल ग्रंथ बहुत ही सरल एवं सुबोध प्रतीत होगा. योगनिष्ठ हैं. उनकी अन्तिम कृति 'संसार दावानल स्तुति थी. जिसकी अन्तिम गाथा | आचार्य भगवंत की परम्परा में गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरजी लिखते-लिखते आचार्यश्री देवलोक हुए तब उपस्थित श्रावक समुदाय ने महाराज के प्रशिष्य राष्ट्रसंत प.पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज की उस अन्तिम (चौथी) स्तुति के शेष तीन चरण रचकर ग्रंथ परिपूर्ण किया. | अर प्रेरणा से आचार्य श्री अजितसागर सूरीश्वरजी महाराज की कृतियों को प्रकाशित आचार्यश्री के विषय में जैन परंपरागत दंतकथानुसार वे उस समय हुए, | | करने का यह प्रयास अनुमोदनीय है.. जब चौदह पूर्वमय दृष्टिवाद रूप सूर्य अस्त हो रहा था. उनके कई ग्रंथों | भीम सेन चरित्र' (मूल) गुजराती का हिन्दी अनुवाद श्री रंजन परमार एवं में वह तत्त्वज्ञान मिलता है जो अन्यत्र कहीं भी नहीं मिल सकता है. पूर्वगत सुश्री ज्योति बाफना ने बड़ी लगन के साथ इस प्रकार किया है कि हिन्दी पाठकों ज्ञान की छाया उन ग्रंथों पर अवश्य पड़ी है यह निर्विवाद मानना होगा. को प्रतीत नहीं होगा कि यह किसी ग्रंथ का अनुवाद है. अनुवाद की भाषा अत्यंत अन्यथा ऐसा प्ररूपण नहीं हो सकता. जैन समाज में आचार्यश्री के वचन क्लिष्ट न होकर सामान्य जनोपयोगी है और कुल मिलाकर ग्रंथ की प्रस्तुति 'टंकशाली' माने जाते हैं. यह उनकी प्रामाणिकता का तथ्यभूत प्रमाण है. प्रशंसनीय है. आध्यात्मिक जगत का कोई ऐसा विषय नहीं होगा जो उन्होंने बाकी छोड़ा (सचित्र) भीमसेन चरित्र, मूल (गु.) लेखक : आचार्य श्रीअजीतसागरसूरीश्वरजी | म. सा., प्रेरक : प. पू. राष्ट्रसंत आचार्य श्रीपनसागरसूरीश्वरजी म. सा. के शिष्य हो. इस प्रकार आचार्यश्री हरिभद्रसूरीश्वरजी की जैन धर्म में अपनी रत्न गणिवर्य श्री अरुणोदयसागरजी म. सा. हिन्दी अनुवादः रंजन परमार एवं विशिष्ट पहचान हैं. उनकी ग्रंथ रूपी संतति आज के भौतिक युग में इतनी सुश्री ज्योति बाफना, आवृत्तिः प्रथम, सं. २०५०, मूल्य ४०/%D, प्रकाशकः श्री ही आध्यात्मिक जगत के प्रति सतत क्रियाशील है. अरुणोदय फाउण्डेशन, कोबा, गाँधीनगर. उनके प्रमुख ग्रंथ निम्नोक्त हैं : योगदृष्टि समुच्चय, लघुक्षेत्र समास, योगशतक, योगविंशिका, श्रावक धर्म, योगबिन्दु, अनेकान्तजयपताका, पाठकों से नम्र निवेदन अनेकान्तवाद प्रवेश-टिप्पण,शास्त्रवार्ता समुच्चय, द्विजवदन चपेटा,लोक ___ यह अंक आपको कैसा लगा, हमें अवश्य लिखें. आपके सुझावों की हमें प्रतीक्षा है. तत्वनिर्णय, षड्दर्शन, धर्मबिन्दु, सर्वज्ञसिद्धि, षोडशक प्रकरण, धर्मबिन्दु, आप अपनी अप्रकाशित रचना/लेख सुवाच्य अक्षरों में लिखकर दंकित कर हमें भेज धुर्ताख्यान, समरादित्य कथा, अष्टक प्रकरण, उपदेशपद, पंचवस्तु, | " | सकते हैं. अपनी रचना/लेखों के साथ उचित मूल्य का टिकट लगा लिफाफा अवश्य भेजें पंचाशक....आदि. अन्यथा हम अस्वीकृति की दशा में रचना वापस नहीं भेज सकेंगे. उपर्युक्त मौलिक ग्रंथ उपलब्ध हैं. परन्तु उनके द्वारा रचित ग्रंथों में श्रुतसागर, आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर से मात्र कुछ एक ग्रंथ ही वर्तमान काल में उपलब्ध होते हैं. 0 श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा, गांधीनगर ३८२००९. 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