Book Title: Shrutsagar Ank 1996 04 003 Author(s): Manoj Jain, Balaji Ganorkar Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba View full book textPage 3
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुत सागर, बैशाख २०५२ www.kobatirth.org सुभाषित मूलाओ बंधणभवो दुमस्स, संधाउ पच्छा समुवेन्ति साहा । साहप्पसाहा विरुहन्ति साहा, तओ सि पुष्पं च फलं रसो य ।। एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मोक्खो । जेण कित्तिं, सयं, सिग्धं, निस्सेसं घाभिगच्छई ।। 1 1 [९-२-१,२ दशवैकालिक सूत्र ] वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है, स्कन्ध के पश्चात् शाखाएँ और शाखाओं में से प्रशाखाएँ निकलती हैं। इसके पश्चात् फूल, फल और रस उत्पन्न होता है। इसी प्रकार धर्म रूपी वृक्ष का मूल विनय है, और उसका अन्तिम फल मोक्ष है । विनय से मनुष्य को कीर्ति, प्रशंसा और श्रुतज्ञान आदि समस्त इष्ट तत्वों की प्राप्ति होती है CReddl जस्संतिए धम्मपवाई सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे । (९-१-१२ दशवेकालिक सूत्र ] जिनके पास धर्म - शिक्षा प्राप्त करे, उनके प्रति सदा विनय भाव रखना चाहिए। asnebesned तम्हा विणयमेसिज्जा, सीलं पडिलभेज्जओ । [१-७ उत्तराध्यायन सूत्र ] विनय से साधक को शील-सदाचार मिलता है। अत: उसकी खोज करनी चाहिए। O पृष्ठ २ का शेष ] राष्ट्रसंत का विहार.... कार्यक्रम रहा एवं पटना जंक्शन में भी खूब भव्य कार्यक्रम आदि रहे. बिहार पत्रकार संघ की ओर से अध्यक्ष श्री रामजी मिश्र ने अभिनंदन समारोह का सुंदर आयोजन नृत्य कलामंदिर के हॉल में किया. इस कार्यक्रम में पटना के वौद्धिक समाज की अच्छी उपस्थिति रही. दादावाड़ी भवन का उद्घाटन भी पूज्य आचार्यश्री की निश्रा में हुआ. सर्वश्री ताजबहादुरसिंहजी वेद, प्रदीप कोठारी आदि ने कार्यक्रम को खूब सुंदर रूप दिया. उन्होंने सुदर्शन सेठ की पुण्य भूमि में उनकी चरण पादुका एवं थी स्थूलभद्रजी के चरण पादुका का दर्शन-वंदन भी किया. पश्चात् पू. आचार्यश्री गंगा पुल पार करके हाजीपुर पधारे. जहां पर हाथी, घोड़े ऊंट व पटना के प्रसिद्ध बैंड के साथ पूज्य आचार्यश्री के परिवार वालों ने खूब भव्य सामैया आदि किया. हाजीपुर के प्रतिष्ठित व्यक्ति श्री चंद्रेश्वर प्रसाद सिंहजी ने खूब अच्छा लाभ इस प्रसंग पर लिया. आचार्यश्री के परिवार की जमींदारी इसी वैशाली जिले में थी. आज भी उनके परिवार का इस क्षेत्र में अच्छा वर्चस्व है. इसके बाद पूज्य आचार्यश्री ने मुजफ्फरपुर- मोतिहारी होकर के वीरगंज (नेपाल) में ३१-०३-९६ को प्रवेश किये. महावीर जन्म कल्याणक वहां पर भव्य रूप से मनाया गया. १२-०३-९६ को नूतन जिनालय की प्रतिष्ठा के काठमांडु में शानदार प्रवेश किया. बड़े महोत्सव के साथ प्रतिष्ठा २५-०४-९६ को सम्पन्न हो रही है. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन साहित्य २ गतांक से आगे] विविधता व प्राचीनता, भारतीय संस्कृति की विशिष्टता है. विविध धर्म, भाषा एवं पंथों का समन्वय भारतीय संस्कृति में होते हुए भी प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय एवं भाषा का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है. जैन धर्म भारतीय संस्कृति का एक विशिष्ट अंग है. इस धर्म का तत्वज्ञान, आचार-विचार एवं साहित्य भारतीय संस्कृति में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है. जैन धर्म की दृष्टि विश्वव्यापी व अनेकान्तात्मक है. जीवन की सभी आवश्यकताएं एवं भावनाएँ इस ओर ध्यान देती हैं. उसी प्रकार जैन धार्मिक साहित्य भी विश्वव्यापी व वैविध्यपूर्ण है. यह साहित्य केवल पारमार्थिक या धार्मिक ही नहीं बल्कि लौकिक एवं व्यावहारिक आवश्यकतानुसार भी सजाया गया है. इस समग्र साहित्य का दृष्टिकोण दार्शनिक के साथ ही वैज्ञानिक भी है. साहित्य की ऐसी कोई विधा नहीं है जिस क्षेत्र में या जिस प्रकार में जैन साहित्य का सर्जन नहीं हुआ हो. जिस प्रकार जैन धर्म विश्व का कल्याण कर्ता और प्राणी मात्र का उद्धारक है, उसी प्रकार उसके साहित्य की भाषा भी विश्वव्यापक होती गई है. जिस-जिस देश में जैन धर्म ने पदार्पण किया है वहाँ पर प्रचलित भाषा में ही ज्ञान दान करने का महत्त्वपूर्ण कार्य जैन साहित्य ने किया है. संस्कृत, प्राकृत, मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, गुजराती, राजस्थानी, हिन्दी, तमिल, तेलगू, नन्द इत्यादि भारत के विभिन्न प्रदेशों में बोली जाने वाली लोकभोग्य भाषाओं में इस साहित्य की रचना हुई है. जैन धर्म का विभिन्न समाजों में प्रचार-प्रसार इस कारण से भी सम्भव हुआ. ज्ञान के सभी क्षेत्रों में जैन धर्म ने अपने दरवाजे खुले रखे हैं. सभी धर्मों के अपने-अपने मूल आधार ग्रंथ होते हैं जो उनके लिए आदर्श एवं पूजनीय या सबसे अधिक सम्माननीय होते हैं. उसी प्रकार जैन धर्म के साहित्य आगम सबसे प्राचीन, सर्वोत्कृष्ट एवं मूल भूत धर्मग्रंथ हैं. जैन धर्मानुयायियों आगम ग्रंथों के प्रति प्रभूत श्रद्धा विद्यमान है. जैन धर्म के अनुसार 'प्रत्येक उत्सर्पिणी/अवसर्पिणी काल में २४ - २४ तीर्थंकर होते हैं लेकिन उनके उपदेश में साम्यता होती है. प्रत्येक काल में जिस तीर्थंकर का शासन चलता हो उन्हीं का उपदेश और शासन, विचार और आचार के लिए प्रजा में मान्य रहता है. प्रत्येक चौवीसी में भी प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासन में थोड़ी आचार भिन्नता रहती है. शेष २२ तीर्थकरों के काल में एक समानता रहती है. इसी दृष्टि से भगवान महावीर चूंकि २४ वें तथा अन्तिम तीर्थकर रहे, इसलिए उन्हीं का उपदेश अंतिम उपदेश है और वही उनकी परंपरा में प्रमाणभूत माना गया है. अन्य तीर्थंकरों के उपदेश उपलब्ध भी नहीं हैं और यदि हैं तो भी वे भगवान महावीर के उपदेशों में सम्मिलित हो गए हैं. भगवान महावीर ने जो उपदेश दिए थे उसे गणधरों ने सूत्र बद्ध किया. आवश्यक नियुक्ति (गाथा १९२ ) में इसीलिए बताया गया है कि अर्थोपदेशक या अर्थ स्वरुप शास्त्र के कर्त्ता गणधर हैं. भगवान महावीर ने स्पष्टता कहा है कि उनके उपदेश का संवाद उनके पूर्व के तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के उपदेश से है. शास्त्रों के अनुशीलन से भी ज्ञात होता है कि भगवान पार्श्वनाथ तथा भगवान महावीर स्वामी के आध्यात्मिक संदेश में मूलतः कोई भेद नहीं है. जैन धर्म में तीर्थंकर प्रणीत वाणी को आगम की संज्ञा दी गई है. इसे श्रुत या सम्यक् श्रुत कहा जाता है. इसी प्रकार स्थविरों की गणना में भी श्रुत स्थविर को स्थान मिला. आचार्य उमास्वाति ने श्रुत के निम्नलिखित पर्यायवाची नाम उल्लिखित किये है श्रुत, आप्तवचन, आगम, उपदेश, ऐतिह्य, प्रवचन और जिन वचन. : [क्रमश: For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8