Book Title: Shrutsagar Ank 1996 04 003 Author(s): Manoj Jain, Balaji Ganorkar Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba View full book textPage 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुत सागर, वैशाख २०५२ जोधपुर स्थित सेवा मंदिर, रावटी के संस्थापक जौहरीमलजी पारख की चिर विदाई...... www.kobatirth.org सुप्रसिद्ध श्रुतसेवक श्री जौहरीमलजी पारख विगत ५ फरवरी १९९६ को दिवंगत हुए. स्व. जौहरीमलजी ने अपना समग्र जीवन श्री संघ के मूलभूत हितों एवं खास कर के जैन साहित्य के विकास एवं संरक्षण के लिए अर्पित कर दिया था. धार्मिक प्रवृत्तियों एवं अध्ययन में ही उन्होनें अपना प्रत्येक क्षण नियोजित किया था. वे स्वयं में एक संस्था थे. पेशे से गोल्ड मेडलिस्ट चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट एवं सभी दृष्टि से सम्पन्न होते हुए भी उन्होंने वैरागी जीवन अपनाया था. पिछले ३० वर्षों से स्व. जौहरीमलजी का जीवन विशेष रूप से जैन साहित्य के संरक्षण व जैन वाङ्गमय के कार्यों में प्रवृत्त था. उन्होंने जोधपुर स्थित रावटी में सेवा मंदिर नामक संस्था स्थापित की. जैन साहित्य के संरक्षण एवं अध्ययन के लिए यह संस्थान अपना विशेष स्थान रखता है स्व० पारखजी अनेक जैन संस्थाओं एवं संगठनों से प्रगाढ़ स्म्प से जुड़े हुए थे तथा सभी सम्प्रदायों की ओर से उन्हें सम्मान प्राप्त था. समग्र जैन समुदाय से उन्होंने अपील की थी कि वे जैन धर्म की समृद्ध आध्यात्मिक परम्पराओं के संरक्षण के लिए आगे आएं. स्व० जौहरीमलजी का जैन ज्ञान भंडारों के लिये अद्वितीय योगदान था उन्होंने जैसलमेर व जोधपुर के ज्ञान भण्डारों में संगृहित हस्तलिखित ग्रंथों के बेटेलॉग तैयार करके जैन ज्ञान भण्डारों को अद्वितीय योगदान व मार्गदर्शन दिया है. स्व० जौहरीमलजी पूना स्थित भण्डारकर ओरियंटल रीसर्च इन्टिब्यूट द्वारा डा. घाटगे के निर्देशन मे चल रहे प्रावृत शब्द कोष निर्माण परियोजना के प्रमुख प्रेरक थे. साङ्गोपाङ्ग प्राकृत व्याकरण की रचना करने का भी उनका स्वप्न था जो अधूरा रह गया है, जिसे पूरा करने का दायित्व विद्वद्वर्ग का है. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा स्थित आचार्यश्री कैलाससागर सूरि ज्ञान मंदिर में हस्तप्रतों के सूचीकरण, संरक्षण, संवर्धन एवं एतदर्थ प्रक्रियाओं के निर्धारण हेतु उन्होंने अपना अमूल्य योगदान दिया था. उनकी सेवाओं की अनुमोदना के लिए आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञान मंदिर में प. पू. गणिवर्य श्री अरुणोदयसागरजी म. सा. की निश्रा में शोक सभा आयोजित की गई. इस सभा में संस्था की ओर से स्वर्गस्थ के वश्यकी अनुमोदना की गई एवं आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञान मंदिर में संरक्षित पाण्डुलिपियों के सूचीकरण के कार्य में उनके योगदान का हृदयपूर्वक स्मरण किया गया. साथ ही साथ यह भावना भी व्यक्त की गई कि वृहद् जैन हस्तप्रत, प्रकाशन एवं कृतियों का सूचीपत्र बनाने का जौहरीमलजी का स्व'न जो कि इस संस्था में आगे बढ़ रहा है, पूरी निष्ठा के साथ संपूर्ण किया hair. आपश्री तथा प. पू. गणिवर्य श्री अरुणोदयसागरजी म. सा. ने स्व. जौहरीमलजी के अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिए कार्यकर्ताओं का आह्वान किया. सभा ने दिवंगत आत्मा की शांति के लिए महामंत्र स्मरण पूर्वक प्रार्थना की. स्व. जौहरीमलजी का जैन साहित्य के संरक्षण हेतु अद्वितीय योगदान था. वे एक आदर्श श्रावक धर्म के व्रती होने के साथ ही तपस्वी जीवन के बिल्कुल करीब थे जैन समाज उनके इस अकाल अवसान की क्षति पूर्ति नहीं कर सकेगा. मात्र जैन समाज ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतीय विद्वसमाज उन्हें हमेशा याद करता रहेगा. O नम्र निवेदन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर द्वारा चल रही श्रुतसंवर्धन की विविध प्रवृत्तियों में उदार मन से लाभ लीजिये और पुण्य उपार्जन कीजिये । सहकार ही सफलता का सूत्र है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७ • आचार्यश्री कैलाससागरसूरि........ पृष्ठ ८ का शेष ] नगर प्रमुख हैं. आचार्यश्री महानगरों के साथ-साथ गाँवों में भी चातुर्मास करने आचार्यश्री के पावन उपदेशों एवं उनके उज्ज्वल जीवन से प्रभावित होकर कई महान् के विशेष इच्छुक थे. उन्होंने कई छोटे-छोटे गाँवों में भी चातुर्मास किये थे, पूज्य आत्माओं नें संयम ग्रहण किया. निम्नलिखित आचार्य साधु भगवंतों ने पूज्य आचार्यश्री के पास ही उनके शिष्य के रूप में दीक्षा ग्रहण की थी. १. पूज्य पंन्यास श्री सूर्यसागरजी म. सा. २. पूज्य आचार्यश्री भद्रवाहुसागरसूरीश्वरजी म. सा. ३. पूज्य प्रवर्तक श्री इन्द्रसागरजी म. सा. ४. पूज्य आचार्यश्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म. सा. ५. पूज्य मुनि श्री कंचनसागरजी म. सा. ६. पूज्य गणिवर्य श्री ज्ञानसागरजी म. सा. ८. पूज्य मुनि श्री संयमसागरजी म. सा. इनमें से पूज्य पंन्यास श्री सूर्यसागरजी म. सा. एवं पूज्य प्रवर्तक श्री इन्द्रसागरजी म. सा. का स्वर्गवास आचार्य श्री की विद्यमानता में ही हो गया था. श्री के ३० से भी अधिक प्रशिष्यादि हैं. जिसमें प. पू. राष्ट्रसंत आचार्य श्री पूज्य आचार्य पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. का नाम विशेष उल्लेखनीय है. इसके अतिरिक्त आचार्यश्री के आज्ञानुवर्ती साधु-साध्वियों का भी विशाल समुदाय है. पूज्य प्रतिलेखन करने के लिए आचार्यश्री ने कायोत्सर्ग किया. वस,वह कायोत्सर्ग पूर्ण वि. सं. २०४१, ज्येष्ठ सुदि २ के दिन प्रातः काल का प्रतिक्रमण पूर्णकर, हो, उससे पहले ही आचार्य श्री की जीवन-यात्रा ही पूर्ण हो गयी. ज चतुर्विंशति स्तव में 'समाहि वर मुत्तमं दित्तु' जैसे मंगल शब्दों द्वारा समाधिमय मृत्यु समाधिमय मृत्यु प्राप्त की. जिस मृत्यु के विचार मात्र से व्यक्ति भयभीत हो जाता की प्रार्थना की जाती है, उसी चतुर्विंशति स्तव के कायोत्सर्ग में पूज्य आचार्यश्री ने है, वह मृत्यु आचार्यश्री के चरणों में झुक गई. पूज्य आचार्यश्री का अंतिम संस्कार श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोवा के प्रांगण में किया गया था. कई सदियों के बाद ऐसे विरल और विराट व्यक्ति का समाज में अवतरण होता है, जो स्व- आत्मकल्याण के साथ-साथ हजारो-लाखो लोगों को आत्मकल्याण के पथ और मरना तो सांसारिक जीव का एक स्वभाव है. जन्म लेने वाला व्यक्ति एक न पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देकर उनके जीवन-पथ को आलोकित करते हैं. जन्म लेना एक दिन अवश्य ही मरता है. परन्तु समाधिमय मृत्यु विरलों को ही प्राप्त होती है. पूज्य आचार्यश्री की समाधिमय मृत्यु उनकी उज्वल एवं पवित्र जीवन-साधना का स्पष्ट चित्रण है. आचार्यश्री अपनी मृत्यु को शोक नहीं, बल्कि महोत्सव बनाकर गए. आपकी समग्र जीवन साधना मृत्यु के लिये थी. आचार्य श्री हर समय कहा करते थे कि मैं समाधिमय मृत्यु प्राप्त करना चाहता हूँ. वास्तव में यही हुआ, उन्होंने पूर्ण जागृति, शांति एवं प्रसन्नता के साथ मृत्यु प्राप्त की. अपनी आत्मशुद्धि की और उनसे कहा कि- “मैं मृत्यु प्राप्त कर श्री सीमंधरस्वामी मृत्यु से पूर्व रात्रि में अपने शिष्यों-प्रशिष्यों आदि से मच्छामि दुक्कडं देकर परमात्मा के पास जाना चाहता हूँ, मुझे जीवन जीने की कोई इच्छा नहीं है और मरने का कोई डर नहीं है." यही आचार्यश्री के अंतिम उद्गार थे. आप शांति एवं प्रसन्नता की मूर्ति एवं समस्त जैन समाज के राहवर थे. आप में परमात्मा के प्रति श्रद्धा कूट-कूट कर भरी हुई थी. आपके रोम-रोम में जिन शासन और परमात्मा का नाम, प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भावना की अपूर्व गूँज थी. आप अपना अधिकतर समय परमात्मा के स्मरण एवं चिन्तन मनन में व्यतीत करते थे. कभी आपको व्यर्थ में समय व्यतीत करते नहीं देखा गया. जिस प्रकार से समय का सुन्दर उपयोग आचार्यश्री ने अपने जीवन में किया, शायद ही ऐसा इस काल में कोई कर सकेगा. आचार्यश्री का जीवन एवं निर्मल चरित्र अपने आप में अनूठा, अनोखा, एवं एक आदर्श था, जो युगों-युगों तक श्रद्धालुओं के जीवन-पथ को आलोकित कर उन्हें उज्जवल जीवन जीने की प्रेरणा देता रहेगा. अंत में पूज्य आचार्यश्री के परम पावन चरण कमलों में भावभरी कोटिशः बन्दना ..... 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