Book Title: Shrutsagar 2018 07 Volume 05 Issue 02
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 27
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 27 श्रुतसागर जुलाई-२०१८ कोमलामंत्रणे, ९) किम तिम ते, १०) तुम्हारइ संगमे, ११) भला मनवंत, १२) न रमइ(?) १३) किन्तु रमइ ज ॥२८॥ 'त्वं श्रीपतिर्गणपतिर्नरसङ्घपूज्यः शास्त्रोक्तशिष्टि चतुरङ्गिगुरुक्रमस्थः । 'आज्ञेश्वरोऽपि जनपाल! "सुमन्त्रिभृत्त्यः चित्रं विभो! ' यदसि कर्मविपाकशून्यः ॥२९॥ १) राजानी उपमा माह-तुम्हे लक्ष्मीपति, गणपति, नरसिंघे पूजित, २) सिद्धांत शास्त्रोक्त आज्ञा, ३) चतुरंगि कहेता दानादि ४, तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप-४, तथा साध्वादि ४, ४) गुरु परंपराए छइ, ५) आज्ञा प्रमाणे [इ]श्वर, ६) प्रजापाल, ७) भला मंत्रि सेवक, ८) आश्चर्य, ९) विभो, १०) जे भणी कर्म विपाक शून्य ए आश्चर्य ॥२९॥ 'तंबा सुतेन गलभूषण शत्रुनाथे, पर्जन्य पुष्फ(ष्क) सुत सूत नया मुखाभे। १२क्षीरोद सूपति सहोदर पट्टसूर्ये "ज्ञानं त्वयि स्फुरति "विश्वविकाशहेतुः ॥३०॥ १) गौसुतो - वृषभ, २) इन-ईश्वर, ३) गलभूषण-सर्प, ४) शत्रु-गरूड, ५) नाथे-श्रीकेशवे, ६) पर्जन्य-मेघ, ७) पुष्क-जल, ८) सुत-कमल, ९) सू-ब्रह्मा, १०) तनया-सरस्वती, ११) मुखाभरणे, १२) क्षीरसमुद्र, १३) सू-लक्ष्मी, १४) पतिदामोदर, १५) तेहनो भाई, १६) श्रीकर्मसिंहजी नइ पाटि सूर्य, १७) ज्ञान तुम्हारइ विषइ स्फूरइ, १८) विश्वप्रकाशहेतुः ॥३०॥ 'जन्त्वार्तिदः कलहवैरसमस्तयुद्धैः क्रोधोऽ परेण "पुरुषेण सपद्य जेयः। "मुक्तिक्षमार्जवगुणैर्भवता मुनीन्द्र! °ग्रस्तस्त्व मीभिरय मेव परं दुरात्मा ॥३१॥ १) जीवनइ आर्तिदाता, २) राडि वैर सर्व युद्धे करी, ३) क्रोध, ४) अन्य, ५) पुरुषे, ६) ततकाल, ७) न जीताइ, ८) निर्लोभ, क्षमा, ऋजु गुणे करी तुम्हे, ९) हे मुनींद्र!, १०) ग्रस्यो-जीत्यो, ११) एणि क्षमादि गुणे, १२) ए(व?) निश्चय, प्रकृष्ट दुरात्मा जे भणी क्रोधः प्रियनाशक ॥३१॥ 'माधुर्यवाग्धर! धराधरधर्मधीर! तीर्थाधिनाथनिभ! मन्युकृशानुनीर!। यस्ते भवेत् खलकृताविनयो मुनीन्द्र! तेनैव तस्य जिन! ‘दुस्तरवारिकृत्त्यम् ॥३२॥ १) हे मधुरवाणीधर!, पर्वत सम धर्मनइ विषइ धीर!, तीर्थंकर सम!, क्रोधअग्निनइ विषइ नीर!, २) जे तुम्हारो होइ, ३) खल-दुर्जननो कर्यो अविनय, ४) हे मुनींद्र!, ५) तेणि अविनये करी, ६) तेहनइ ज, ७) हे जिन !, ८) तरवारिनुं कृत्य होइ, एतलइ अविनीतनो अविनय तेहनइ दुख दिइ ॥३२॥ For Private and Personal Use Only

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