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July-2018
SHRUTSAGAR भवांतरे पण ॥४२॥ 'सन्तोषशीलसुधियो निजसेवकार्थ-दानैकपिङ्गसदृशो 'वरपात्रलाभम् । 'दीवं पुरं शिवकरं किल ते श्रयन्ति ये संस्तवं तव विभो! रचयन्ति भव्याः ॥४३॥
१) संतोष शील सुधीनो, २) पोताना सेवकनइ दान देवानइ विषइ धनद सरिखानो, ३) प्रधान पात्र लाभनइ, ४) दीव नगरनइ, ५) कल्याणकरनइ, ६) किल ते जन, ७) आश्रय पामइ, ८) जे संस्तव तुम्हारु प्रभो, ९) रचइ, १०) भव्य प्राणिनः ॥४३॥
श्रीमद्गणेशशिष्य प्रेम विनिर्मित गिरिधरनुतिपठनात्। 'भय-दुःखानां भव्या-'अचिरान् मोक्षं प्रपद्यन्ते
॥४४॥ १) श्रीमान् पूज्य ऋषि श्रीगणेशजी, २) तस्य शिष्य ऋषि प्रेमजी, ३) निपजावीउ, ४) श्रीकेशवजीनी स्तुति भणता, ५) भय दुःखना, ६) भव्यजीव, ७) ततकाल मोक्ष पामइ ॥४४॥
॥ इति श्रीकल्याणमन्दिरचतुर्थपादगृहितसमस्यास्तोत्रम् ॥ || श्री ६आचार्यजी ऋषि श्रीइकेशवजीनी स्तुतिः पूज्य ऋषि श्रीगणेशजी तस्य शिष्य प्रेमजीमुनिना कृता || लेखक पाठकयो(:) शुभं भवतु ॥ श्रीः ॥
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