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श्रुतसागर
अप्रैल-२०१७ सूत्रों में गूंथित देशना को उन्होंने अपने शिष्य-प्रशिष्य के अध्ययन हेतु दिया. इन आगमों को क्रमशः वीर संवत नवमी दसवीं सदी के बाद श्रमणवर्गों ने एकत्र होकर इसे लिपिबद्ध किया. जो वल्लभी वांचना के नाम से जाना जाता है. उसके बाद इन आगमों को पंचांगी में चूर्णि-भाष्य-टीका आदि के माध्यम से पुनः स्पष्टता की गई. समय समय पर महापुरुषों ने पुस्तकों के आधार से इस ज्ञान को यहाँ तक पहुँचाया है.
कुछ समय तक यह आगमज्ञान अनुप्रेक्षा तथा स्वाध्याय के द्वारा अणिशुद्ध व अखंड रहा, परन्तु भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग ९०० वर्षों के बाद एक बार व्यापक दुष्काल के कारण मुनिविहार का क्रम अवरुद्ध हो गया. स्वाध्याय, पुररावर्तन तथा अध्ययन की प्रक्रिया छिन्न-भिन्न हो गई. जिसके कारण कंठस्थ श्रुत का काफी बड़ा अंश विस्मृत हो गया. इस विस्मृति में से श्रुत को सुरक्षित रखने के लिए ही क्षमाश्रमण द्वारा भगीरथ कार्य का आरम्भ किया गया. यह मूल्यवान विरासत कुछ अंशों में आज अपने संघ तक अखंड रूप से चली आ रही है. ___ जैन गृहस्थ देव-शास्त्र-गुरु का उपासक होता है. जिनेन्द्रदेव के पश्चात् आम्नायानुमोदित धर्मशास्त्र और साधु रूपी गुरु ही उसकी शक्ति के सर्वोपरि पात्र होते हैं. उनके दैनिक आवश्यक नित्यक्रम में स्वाध्याय और दान का महत्वपूर्ण स्थान है. श्रद्धापूर्वक धर्मशास्त्रों का नित्य कुछ काल अध्ययन करना स्वाध्याय है, और साधु-साध्वी आदि सभी सत्पात्रों की आहार-अभय-औषधि-शास्त्र रूप चतुर्विध दान से सेवा करना दान है. अतः स्वतः भी और गुरुओं की प्रेरणा से भी जैन गृहस्थ साधु-साध्वियों को, अन्य त्यागी व्रतियों को तथा जिनमंदिरों को शास्त्रों की प्रतियाँ लिखाकर दान करने में सदैव उत्साहपूर्वक प्रवृत होते रहे हैं. परिणामस्वरूप देश के प्रायः प्रत्येक जिनालय में एक छोटा-मोटा शास्त्र-भंडार विकसित होता रहा. अनेक भट्टारकीय पीठों, मठों, वसदियों, उपश्रयों आदि में अच्छे ग्रंथसंग्रह केन्द्र बने और संरक्षित रहे. इस प्रकार ये विविध शास्त्र-भंडार और जैन साहित्य के संरक्षण के सफल-साधन सिद्ध हुए.
आधुनिक युग के प्रारम्भ में ही जबसे पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य आदि का विधिवत् अध्ययन प्रारम्भ किया तो धीरे-धीरे जैन शास्त्रभंडारों ने भी उनका ध्यान आकर्षित किया. अनेक जैन ग्रंथभंडारों के पांडुलिपियों के शोधखोज एवं अध्ययन का अभूतपूर्व कार्य प्रारम्भ हुआ. इस संदर्भ में आवश्यकता प्रतीत होने लगी कि कम से कम प्रत्येक महत्वपूर्ण जैन शास्त्रभंडार में संगृहीत ग्रंथों की
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