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श्रुतसागर
अप्रैल-२०१७ मिले उसी स्थिति में संग्रह करने का कार्य किया और आज वह संग्रह जैन जगत को गौरव प्रदान करने वाला भारतवर्ष का सबसे बड़ा हस्तप्रत संग्रह केन्द्र बन गया है.
पूर्वधर पू. आ. श्री आर्यरक्षितसूरिजी महाराज ने पृथक् अनुयोग की व्यवस्था की, जिसके कारण पूर्व पुरुषों की परम्परा के द्वारा जैन आगमों की शुद्ध विरासत हमें प्राप्त हो सका है. श्री अभयदेवसूरिजी ने नवांगी टीका, षड्दर्शनवेत्ता श्रीहरिभद्रसूरिजी ने योग तथा न्याय के सुंदर ग्रंथ, कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचंद्राचार्यजी ने व्याकरण, छंद, अलंकार आदि का विपुल सर्जन किया, लघु हरिभद्र के नाम से विख्यात पू. उपाध्यायश्री यशोविजयजी ने न्याय के ग्रंथों की रचना की. उपरांत, ज्योतिष, वैदक आदि विषयों के ग्रन्थसर्जन में जैनमुनियों का बहुत बड़ा योगदान रहा है. ऐसे ही विशाल योगदान आगमसाहित्य के संपादन-संशोधन के क्षेत्र में पू. आ. श्री सागरानन्दसूरिजी, मुनि श्री पुण्यविजयजी, मुनि श्री जिनविजयजी, मुनि श्री जंबुविजयजी आदि का नाम सम्मान पूर्वक लिया जाता है, तो आगमसाहित्य के संरक्षण के क्षेत्र में राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी द्वारा किए जा रहे कार्य से आने वाली पीढ़ी लाभान्वित होगी तथा उनका नाम जैन साहित्य गगन में देदीप्यमान नक्षत्र की तरह सदैव चमकता रहेगा.
क्षतिसुधार श्रुतसागर वर्ष-३ अंक-१० में 'छिन्नू जिनवरारौ स्तवन' नामक लेख (प्रत्रांक-२३, पंक्ति-२०,२१) में गाथा-१ में भूल से ऐसा छप गया था “ध्यांन श्रुतदेवता तणो हियडै धरी, सयल जिनरायना पाय प्रणमी करी।” इस सन्दर्भ में पाठकों से अनुरोध है कि इसे इस प्रकार सुधारकर पढ़ें. “सयल जिनरायना पाय प्रणमी करी, ध्यांन श्रुतदेवता तणो हियडै धरी।”
इस क्षति की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करने के लिए हम मुनि श्री मेहुलप्रभसागरजी के आभारी हैं तथा इसके लिए हम पाठकों से क्षमाप्रार्थी हैं।
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