Book Title: Shramanvidya Part 1
Author(s): Gokulchandra Jain
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 7
________________ ( २ ) सम्मिलित हुआ। इसमें मेरे पुराने मित्र बन्धु भी थे। इस प्रकार के आयोजन विश्वविद्यालय के लिए गौरव की बात हैं। मैंने अपने वक्तव्य में इन बातों का उल्लेख भी किया था। यह भी कहा था कि आयोजक विद्वान् इसे अखिल भारतीय संगोष्ठी कहते हैं, मैं तो प्रत्यक्ष देख रहा हूँ कि यह "अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी" है। विश्वविद्यालय में इस प्रकार की संगोष्ठी शृंखलाबद्ध आयोजित होती हैं। उनमें पठित महत्त्वपूर्ण शोध निबन्धों को और उन पर हुए परिसंवाद को विश्वविद्यालय “परिसंवाद" माला के रूप में प्रकाशित कर रहा है। "संकाय पत्रिका" इस दिशा में एक और अगला चरण है। इसमें विश्वविद्यालय द्वारा विगत २५ वर्षों से हो रहे और आगे होने वाले विशिष्ट अनुसंधान कार्यों की उपलब्धियों का प्रकाशन किया जायेगा। संकाय पत्रिका के इस अंक में संस्कृत, पालि और प्राकृत के छह लघु ग्रन्थ प्रथम बार भारत की देवनागरी लिपि में प्रस्तुत किये गये हैं। हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में तीन शोध निबन्धों और एक विश्वविद्यालयीय अनुसंधान कार्यों का सर्वेक्षण भी सम्मिलित किया गया है। उत्तर में हिमालय के नेपाल तथा तिब्बत से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक इसका व्यापक क्षेत्र है। यूरोप में हुए अनुसंधान और प्रकाशन कार्यों का इसमें उपयोग किया गया है। भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में हो रहे अनुसंधान कार्यों की जानकारी इसमें दी गयी है। इससे स्पष्ट है कि अनुसंधान के क्षेत्र में भाषाओं और लिपियों की विविधता अध्ययनशील विद्वान् और विद्यार्थी के लिए समस्या नहीं है। देश और काल की सीमा से ऊपर उठकर वह व्यापक क्षेत्र में मुक्त भाव से कार्य करता है। भारतीय मनीषा का यही उद्घोष “यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्'' में किया गया है । भारतीय संस्कृति की यही विशेषता है। अनुसंधान के क्षेत्र में इस प्रकार का उदार और व्यापक दृष्टिकोण अनवरत स्मरणीय है। भारतीय मनीषियों की इसी व्यापक और उदार दृष्टि के फलस्वरूप ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाप्रशाखाओं की अक्षय निधि प्राच्य विद्याओं के रूप में हमें प्राप्त है। यूरोप के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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