Book Title: Shraman Achar Miamnsa Author(s): Bhagchandra Jain Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf View full book textPage 2
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ दोनों धर्मों के प्रासाद रत्नत्रय के सबल स्तम्भों पर खड़े हुए हैं । जैनधर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मोक्ष का मार्ग मानता है और बौद्धधर्म प्रज्ञा, शील, समाधि से निर्वाण तक पहुँचाता है । महावीर और बुद्ध दोनों ने संसार को अनित्य और दुःखदायी माना है । उनकी दृष्टि में सांसारिक पदार्थ क्षणभंगुर हैं और उनका मोह जन्म-मरण की प्रक्रिया को बढ़ाने वाला है । इसका मूल करण अविद्या, मिथ्यात्व अथवा राग-द्वेष है । रागद्वेष से अशुद्ध भाव, अशुद्ध भाव से कर्मों का आगमन, बन्धन और उदय, उदय से गति, गति से शरीर, शरीर से इन्द्रियाँ, इन्द्रियों से विषय ग्रहण और विषय ग्रहण से सुख-दुःखानुभूति । महावीर ने इसी को भवचक कहा है और रागद्व ेष से विनिर्मुक्ति को ही मोक्ष बताया है । बुद्ध ने इसी को प्रतीत्यसमुत्पाद कहा है जिसे उन्होंने उसके अनुलोम-विलोम रूप के साथ सम्बोधिकाल में प्राप्त किया था । उत्तरकाल में प्रतीत्यसमुत्पाद का सैद्धान्तिक पक्ष दार्शनिक रूप से विकसित हुआ और यह विकास स्वभावशून्यता तक पहुँचा । भेदविज्ञान और धर्मप्रविचय जैनधर्म में जिसे तत्त्वदृष्टि अथवा भेदविज्ञान कहा है ( समयसार, आत्मख्याति, १५८) बौद्धधर्म में उसी को धर्मप्रविचय की संज्ञा दी गई है । धर्मप्रविचय का अर्थ है - साश्रव - अनाश्रव का ज्ञान । इसी को 'प्रज्ञा' कहा गया है । प्रज्ञा का तात्पर्य है -- अनित्य आदि प्रकारों से धर्मों को जानने वाला धर्म । यह एक कुशल धर्म है जो मोहादि के दूर होने से उत्पन्न होता है ।" इसी प्रज्ञा को तत्त्वज्ञान कहा गया है । जैनधर्म इसे 'सम्यग्ज्ञान' कहता है । अष्टसाहस्रिका में प्रज्ञापारमिता को बुद्ध का धर्मकाय माना गया है । दोनों की व्याख्या में कोई विशेष अन्तर नहीं है । सम्यग्दर्शन और बोधिचित्त जैनदर्शन जिसे सम्यग्दर्शन कहता है, बौद्धदर्शन में उसे 'बोधिचित्त' कहा गया । बोधिचित्त उत्तरकालीन बौद्धधर्म के विकास का परिणाम है । बोधिचित शुभ कर्मों को प्रवृत्ति का सूचक है उसकी प्राप्ति हो जाने पर साधक नरक, तिर्यक्, यमलोक, प्रत्यन्त जनपद, दीर्घायुषदेव, इन्द्रियविकलता, मिथ्यादृष्टि और चित्तोत्पाद - विरागिता इन आठ अक्षणों ने विनिर्मुक्त हो जाता है । इस अवस्था में साधक समस्त जीवों के उद्धार के उद्देश्य से बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए चित्त को प्रतिष्ठित कर लेता है । बोधिचर्यावतार में इसके दो भेद किये गये हैं बोधि प्रणिधिचित्त और बोधिप्रस्थान चित्त स्व-पर भेदविज्ञान अथवा हेयोपादेय ज्ञान सम्यग्दर्शन है । वह कभी स्वतः होता है, कभी परोपदेशजन्य होता है । संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भवित, अनुकम्पा और वात्सल्य से आठ गुण सम्यग्दृष्टि के होते हैं । निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकार के सम्यग्दर्शन बोधिचित्त अवस्था में दिखाई देते हैं पर उसके अन्य भेद बोधिचित्त के भेदों के साथ मेल नहीं खाते । सम्यग्दृष्टि के सभी भाव ज्ञानमयी होते हैं । मिथ्यात्व आदि कर्म न होने के कारण ज्ञानी को दुर्गति प्रापक कर्मबन्ध नहीं होता । सम्यग्दृष्टि भी अधिकांश अक्षणों से विनिर्मुक्त रहता है । वह नरक, तिर्यंच, नपुंसक, स्त्रीत्व तथा निम्न कुल, विकलांग, अल्पायु और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होता । 2 त्रिसुद्धिमग्ग, पृष्ठ 324 3. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 35-36 श्रमण आचार मीमांसा : डॉ० भागचन्द्र जैन | १११ wwwPage Navigation
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