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FI साध्वीरित्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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जैन-बौद्ध विनय का तुलनात्मक अध्ययन
श्रम ण आ चार-मीमांसा
डा. भागचन्द्र जैन जैन-बौद्धधर्म श्रमण संस्कृति के अन्यतम अंग हैं । आचार उनको प्रधान दृष्टि है । अहिंसा और समता उनकी मूल आधारशिला है। बौद्धधर्म की तुलना में जैनधर्म निर्विवाद रूप से प्राचीनतर है। त्रिपिटक में प्रतिबिम्बित जैन इतिहास और सिद्धान्त इस तथ्य के स्वयं प्रतिपादक हैं। इतना ही नहीं, बल्कि महात्मा बुद्ध ने जैन दीक्षा लेकर कठोर योग साधना की थी, यह भी मज्झिमनिकाय से प्रमाणित होता है।
तीर्थंकर महावीर और महात्मा बुद्ध देश, काल, क्षेत्र और भाव की दृष्टि से समकालीन रहे हैं । इसलिए उनमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से आदान-प्रदान होना स्वाभाविक है। हाँ, यह बात अवश्य है कि जैनधर्म अनेक कारणों से भारत के बाहर अधिक नहीं जा सका जबकि बौद्धधर्म अपने व्यावहारिक दृष्टिकोण के कारण बाहर विदेशों में अधिक फूला-फला। इस विकासात्मकता के फलस्वरूप बौद्धधर्म सिद्धान्त की दृष्टि से भी कहीं का कहीं पहुँच गया। यहाँ तक कि तान्त्रिकता के वीभत्स रूप ने उसे अपनी जन्मभूमि से भी अदृश्य-सा करने में अहं भूमिका अदा की। दूसरी ओर जैनधर्म का न इतना अधिक विकास हुआ है और न वह अधिक फैल ही पाया है।
बौद्धधर्म के विकासात्मक वैविध्य को विनय के साथ सीमित करने के बावजूद प्रस्तुत निबन्ध का विस्तार रोका नहीं जा सकता । इसलिए जैनाचार के साथ तुलना करते समय हमने स्थविरवादी विनय को ही सामने रखा है।
जैनधर्म की आचार-व्यवस्था को समझने के लिए पाँच साधन द्रष्टव्य हैं-(i) आगम, (ii) सूत्र (बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि), (iii) आचार्य की आज्ञा, (iv) धारणा, और (v) जीत (परम्परा)। बौद्धधर्म में इस दृष्टि से चार महापदेशों का उल्लेख मिलता है-(i) बुद्ध, (ii) संघ, (iii) मात्रिकाधर स्थविर; और (iv) बहुश्रुत स्थविर (दीर्घनिकाय, महापरिनिव्वाणसुत्त) । यहाँ अन्तर यह है कि बौद्ध विनय का मूल उद्भावन म. बुद्ध से हुआ है जबकि प्राचीनता की दृष्टि से जैनधर्म ने उस स्थान पर आगम और परम्परा को प्रतिष्ठापित किया है।
1. विशेष देखिए, लेखक का ग्रन्थ (Jainism in Buddhist Literature), नागपुर, 1972
श्रमण आचार को बौद्धधर्म में विनय कहा गया है । स्थविरवादियों का विनय पालि में, सर्वास्तिवादी, आर्यगुप्तक, महीशासक एवं महासांधिकों का चीनी में तथा मूलसर्वास्तिवादियों का चीनी, तिब्बती अनुवाद तथा मूल संस्कृत में है।
११० | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
दोनों धर्मों के प्रासाद रत्नत्रय के सबल स्तम्भों पर खड़े हुए हैं । जैनधर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मोक्ष का मार्ग मानता है और बौद्धधर्म प्रज्ञा, शील, समाधि से निर्वाण तक पहुँचाता है । महावीर और बुद्ध दोनों ने संसार को अनित्य और दुःखदायी माना है । उनकी दृष्टि में सांसारिक पदार्थ क्षणभंगुर हैं और उनका मोह जन्म-मरण की प्रक्रिया को बढ़ाने वाला है । इसका मूल करण अविद्या, मिथ्यात्व अथवा राग-द्वेष है । रागद्वेष से अशुद्ध भाव, अशुद्ध भाव से कर्मों का आगमन, बन्धन और उदय, उदय से गति, गति से शरीर, शरीर से इन्द्रियाँ, इन्द्रियों से विषय ग्रहण और विषय ग्रहण से सुख-दुःखानुभूति । महावीर ने इसी को भवचक कहा है और रागद्व ेष से विनिर्मुक्ति को ही मोक्ष बताया है । बुद्ध ने इसी को प्रतीत्यसमुत्पाद कहा है जिसे उन्होंने उसके अनुलोम-विलोम रूप के साथ सम्बोधिकाल में प्राप्त किया था । उत्तरकाल में प्रतीत्यसमुत्पाद का सैद्धान्तिक पक्ष दार्शनिक रूप से विकसित हुआ और यह विकास स्वभावशून्यता तक पहुँचा ।
भेदविज्ञान और धर्मप्रविचय
जैनधर्म में जिसे तत्त्वदृष्टि अथवा भेदविज्ञान कहा है ( समयसार, आत्मख्याति, १५८) बौद्धधर्म में उसी को धर्मप्रविचय की संज्ञा दी गई है । धर्मप्रविचय का अर्थ है - साश्रव - अनाश्रव का ज्ञान । इसी को 'प्रज्ञा' कहा गया है । प्रज्ञा का तात्पर्य है -- अनित्य आदि प्रकारों से धर्मों को जानने वाला धर्म । यह एक कुशल धर्म है जो मोहादि के दूर होने से उत्पन्न होता है ।" इसी प्रज्ञा को तत्त्वज्ञान कहा गया है । जैनधर्म इसे 'सम्यग्ज्ञान' कहता है । अष्टसाहस्रिका में प्रज्ञापारमिता को बुद्ध का धर्मकाय माना गया है । दोनों की व्याख्या में कोई विशेष अन्तर नहीं है ।
सम्यग्दर्शन और बोधिचित्त
जैनदर्शन जिसे सम्यग्दर्शन कहता है, बौद्धदर्शन में उसे 'बोधिचित्त' कहा गया । बोधिचित्त उत्तरकालीन बौद्धधर्म के विकास का परिणाम है । बोधिचित शुभ कर्मों को प्रवृत्ति का सूचक है उसकी प्राप्ति हो जाने पर साधक नरक, तिर्यक्, यमलोक, प्रत्यन्त जनपद, दीर्घायुषदेव, इन्द्रियविकलता, मिथ्यादृष्टि और चित्तोत्पाद - विरागिता इन आठ अक्षणों ने विनिर्मुक्त हो जाता है । इस अवस्था में साधक समस्त जीवों के उद्धार के उद्देश्य से बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए चित्त को प्रतिष्ठित कर लेता है । बोधिचर्यावतार में इसके दो भेद किये गये हैं
बोधि प्रणिधिचित्त और बोधिप्रस्थान चित्त
स्व-पर भेदविज्ञान अथवा हेयोपादेय ज्ञान सम्यग्दर्शन है । वह कभी स्वतः होता है, कभी परोपदेशजन्य होता है । संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भवित, अनुकम्पा और वात्सल्य से आठ गुण सम्यग्दृष्टि के होते हैं । निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकार के सम्यग्दर्शन बोधिचित्त अवस्था में दिखाई देते हैं पर उसके अन्य भेद बोधिचित्त के भेदों के साथ मेल नहीं खाते । सम्यग्दृष्टि के सभी भाव ज्ञानमयी होते हैं । मिथ्यात्व आदि कर्म न होने के कारण ज्ञानी को दुर्गति प्रापक कर्मबन्ध नहीं होता । सम्यग्दृष्टि भी अधिकांश अक्षणों से विनिर्मुक्त रहता है । वह नरक, तिर्यंच, नपुंसक, स्त्रीत्व तथा निम्न कुल, विकलांग, अल्पायु और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होता ।
2 त्रिसुद्धिमग्ग, पृष्ठ 324
3. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 35-36
श्रमण आचार मीमांसा : डॉ० भागचन्द्र जैन | १११
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श्रमण-श्रमणी विनय
गृहावास आर्तध्यान का कारण है, काम-क्रोधादि वासनाएँ उसमें जाग्रत होती हैं, चपल मन को वश में करना कठिन हो जाता है। इसलिए व्यक्ति प्रव्रज्या ग्रहण करता है । महात्मा बुद्ध भी इस तथ्य से अपरिचित नहीं रहे। उन्होंने लिच्छविपुत्र सुनक्खत्त से यही कहा कि भिक्षु बनने का मूल उद्देश्य समाधि भावनाओं की प्राप्ति और निर्वाण का साक्षात्कार करना है। पर कुछ ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि कतिपय लोग प्रव्रज्या किसी दूसरे ही उद्देश्य से लिया करते थे। सामअफलसुत्त में सत्कार, मधुर भोजन और अपराध क्षमा को प्रव्रज्या के बाह्य सद्यः लाभों में गिनाया है। अभय देव ने कुछ और गहराई से इन कारणों पर विचार किया है । उन्होंने ऐसे दस कारण प्रस्तुत किए हैं-छन्दा (स्वयं की इच्छा), २. रोषा (क्रोधजन्य), ३. परिद्य ना (दरिद्रताजन्य) ४. स्वप्ना, ५. प्रतिश्रुता, ६. मारणिका, ७. रोगिणिका, ८. अनाहता, ६. देव संज्ञप्ति और १०. वत्सानुबन्धिका। वहीं कुछ और भी कारण दिये हैं-इहलोक प्रतिबद्धा, परलोक प्रतिबद्धा, उभयतः प्रतिबद्धा, पुरतः प्रतिबद्धा, पृष्ठतः प्रतिबद्धा।
प्रव्रज्या ग्रहण करने वाला शान्त और चरित्रवान् हो । कुरूप, हीनाधिक अंग वालों, कुष्ठ आदि रोग वालों को दीक्षा का अधिकारी नहीं माना जाता।' महावग्ग में भी प्रव्रज्या के अयोग्य व्यक्तियों को बताया है-कुष्ठ, फोड़ा, चर्मरोग, सूजन और मृगी व्याधियों से पीड़ित, राजसैनिक, ध्वजबन्ध डाकू, चोर, राजदण्ड प्रापक, ऋणी और दास । दोनों धर्म लगभग समान विचार वाले हैं।
___जैनधर्म में दीक्षाकाल का कोई विशेष समय निर्धारित नहीं है। बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग और प्रशान्त भाव हो जाने पर कभी भी दीक्षा ली जा सकती है। इसलिए बाल दीक्षा के भी अनेक उदाहरण मिलते हैं । अतिमुक्तक कुमार की आयु दीक्षा के समय मात्र छः वर्ष थी। पर साधारणतः आठ वर्ष से कुछ अधिक अवस्था होने पर ही दीक्षा दी जाती है और दीक्षा देने वाला एक गुरु होता है । इस दीक्षा को प्रव्रज्या कहा जाता है और छह माह बाद उसकी उवट्ठावणा होती है । इस छह माह के काल को शिक्षाकाल (सेहभूमि) कहा जाता है । इस काल में साधक के सफल हो जाने पर उवट्ठावणा दे दी जाती है अन्यथा छेदोपस्थापना परिहार हो जाता है।
बौद्धधर्म में प्रारम्भ में बुद्ध 'एहिभिक्खू' कहकर साधक को दीक्षित करते थे और कुछ काल बाद उपसंपदा देकर संघ में पूर्ण प्रवेश दे दिया जाता था। बाद में प्रव्रज्या और उपसंपदा त्रिशरण देकर दी जाने लगी। भिक्षुओं को भी दीक्षित करने का अधिकार दे दिया गया। संघ को अनुशासित करने के लिए
य और आचार्य की नियुक्ति की गई। प्रव्रज्या के लिए पन्द्रह तथा उपसंपदा के लिए बीस वर्ष की अवस्था का निर्धारण हआ। श्रमणों को दस शिक्षामदों का पालन करना आवश्यक बताया गया-पाणातिपात, अदिन्नादान, मुसावाद, सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठान, विकाल भोजन, नच्चगीतवादित्तविसूकदासन, मालागन्ध विलेपन धारण-मण्डन, विभूषणट्ठान, उच्चासयन-महासयन और जातरूपरजतपडिग्गहण से दूर रहना । ज्ञप्ति चतुर्थ कर्म का भी प्रारम्भ हुआ ।
4. ज्ञानार्णव, 4-10 6. स्थानांग, अभयदेव टीका, पत्र 449 8. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, 173
5. दीर्घनिकाय, महालिसुत्त 7. योगसार, 8.52 ; बोधपाहुड टीका, 49 9. भगवती सटीक भाग 1, 5-4-188
११२ / चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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यहाँ उवढावणा और उपसंपदा में अर्थभेद है। जैनधर्म में बौद्धधर्म की उपसंपदा के अर्थ में उवठ्ठावणा का प्रयोग हुआ है । उपसंपदा को समाचारी के भेदों में सम्मिलित किया गया है। ज्ञानादि की प्राप्ति के लिए साधक जब किसी अन्य गण-गच्छ के विशिष्ट गुरु के समीप जाता है तब उसकी इस गमन क्रिया को उपसंपदा कहा जाता है ।10 यहाँ उपाध्याय को आचार्य से बड़ा माना गया है ।
___ जैनाचार में दस प्रकार का कल्प (आचार) बताया है। उसमें सचेल-अचेल, दोनों परम्पराएँ हैं। दिगम्बर परम्परा में क्षुल्लक दो लंगोटी और दो न्यून प्रमाण काषाय चादर तथा एलक मात्र लंगोटी रखते हैं। वहां मुनि को किसी भी प्रकार के वस्त्र रखने का प्रश्न ही नहीं उठता। पाणिपात्री होने के कारण पात्रों की आवश्यकता नहीं पड़ती। कमण्डलु और पिच्छिका अवश्य साथ रहते हैं। श्वेताम्बर श्रमण मुखवस्त्रिका, रजोहरण और एक दो अथवा तीन चादर रखते हैं। इस विषय में सम्प्रदायगत मतभेद भी है।
बौद्धधर्म में मुलतः चार प्रकार का निधाय मिलता हैll-(:) भिक्षा मांगना और पुरुषार्थ करना। संघभोज, उद्दिष्ट भोजन, निमंत्रण, शलाका भोजन, पाक्षिक भोजन आदि भी विहित है । (२) श्मशान आदि में पड़े चिथड़ों से चीवर तैयार करना । क्षौम, कापासिक, कौशेय, कम्बल, सन और भंग का वस्त्र भी विधेय है । तीन चीवरों का विधान था-उत्तरासंग अन्तर्वासक एवं संघाटी । उपासकों से ग्रहण करने के लिए चीवरप्रतिग्राहक, चीवरनिधायक, चीवर भाजक जैसे पदों पर भिक्षुओं को नियुक्त किया जाता था । इनको रखने के लिए एक भाण्डागारिक भी होता था । इन चीवरों को काटने, सीने और रंगने का भी विधान है । आसनों के लिए प्रत्यस्तरण, योगियों के लिए कोपीन, वार्षिक साटिका, मुंह पोछने के लिए अंगोछ। एवं थैला आदि रखा जाता था। जूते पहनने का भी विधान है रुग्णावस्था में; पर आरोग्यावस्था में विहार में भी जूता पहनना निषिद्ध था। साधारणतः चमड़े का उपयोग वर्जित था। जैन भिक्षुओं में यह सब निषिद्ध है । नये दीक्षित जैन साधु को रजोहरण, गोच्छक प्रतिग्रह अर्थात् पात्र एवं तीन वस्त्र तथा साध्वी के लिए चार पूरे वस्त्रों को ग्रहण करने का विधान है। साधु के लिए अवग्रहानन्तक अर्थात् गुह्य देशपिधानक रूप कच्छा एवं अवग्रहपट्टक अर्थात् गुह्यदेशाच्छादक रूप पट्टा रखना वर्ण्य है । साध्वी इनका उपयोग कर सकती है। बृहत्कल्प में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को पांच प्रकार के वस्त्रों का उपयोग विहित माना गया है-जांगिक, भांगिक, सानक, पोतक और तिरीटपट्टक । रजोहरण के लिए दिगम्बर साधु मयूरपंख का उपयोग करते हैं और श्वेताम्बर परंपरा में औणिक, औष्ट्रिक, सानक, वच्चकचिप्पक और मुंजविप्पक धागों को कल्प्य बताया है। निर्दोष वस्त्र की कामना, याचना और ग्रहण अनुमत है पर उनका धोना और रंगना निषिद्ध है। इसी प्रकार सादे अलावू, काष्ठ व मिट्टी के पात्र रखना कल्प्य है पर धातु के पात्र रखना वर्जित है । वृद्ध साधु भाण्ड और मात्रिका भी रख सकता है।
__ आवश्यकसूत्र में सचेलक साधु को चौदह पदार्थ ग्रहणीय बताये हैं-अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपोंछन, पीठ, फलक, शय्या. संस्तारक, औषधि, भेषज। उत्तराध्ययन में आहार ग्रहण के छः कारण दिये गये हैं-१.क्षुधा शान्ति, २. वैयावृत्त्य, ३. ईर्यापथ, ४. संयम, ५. प्राणप्रत्यय, और ६. धर्मचिन्ता। संखडि (सामूहिक भोजन), उद्दिष्ट, सचित्त आहार वर्जित है। बौद्धधर्म में ऐसे कोई नियम नहीं है । वहां उद्दिष्ट विहार में स्वयं पकाया भोजन भी विहित है। भोजन के बाद अरण्य
10. उत्तराध्ययन, 26-7
11. मज्झिमनिकाय, I, पाठ 14-15
भ्रमण आचार मीमांसा : डॉ० भागचन्द्र जैन | ११३
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और पुष्करिणी की उपज अर्थात् कमलनाल और आम्ररस भोजन के बाद भी ग्रहणीय माना है । नया तिल, शहद, गुड़, मूंग, नमकीन, पंच गोरस, त्रिकोटिपरिशुद्ध मांस, यवागू, लड्डू भी भक्ष्य माना गया है । पाथेय में तंडुल, मूंग, उड़द, नमक, गुड़, तेल और घी लिया जा सकता है। फलों का रस विकाल भोजन में नहीं गिना जाता ।
जैनाचार इसकी तुलना में अधिक नियमबद्ध और कठोर है । वहां आहार के ४६ दोषों का वर्णन है जिनसे साधु को निर्मुक्त रहना आवश्यक है - १६. उद्गम दोष, १६. गवेषणा दोष ( उत्पादन दोष ), १०. ग्रहणैसणा दोष ( अशनदोष) और ४. संयोजनादि ग्रासैषणा दोष । सोलह उद्गम दोष - १. आधाकर्म, २. औद्देशिक, अथवा अध्वधि, ३. मिश्र, ४. स्थापित, ५. बलि, ६. पूति, ७. प्राभृत, ८ प्रादुष्कार (संक्रमण व प्रकाशन ), ६. क्रीत, १०. प्रामृष्य, (सवृद्धिक और अवृद्धिक) ११. परिवर्त, १२. अभिघट, १३. उदिभन्न, १४. मालारोहण, १५. आछेद्य, १६. अनिसृष्ट । इसी प्रकार अन्य दोष भी दृष्टव्य हैं । पिण्डनिर्युक्ति में ग्रासैषणा में अकारण दोष मिलाकर ४७ आहार- दोषों का उल्लेख मिलता है। अट्ठाईस मूल गुणों के अन्तर्गत दिगम्बर परम्परा में मान्य स्थिति भोजन और एकभक्तव्रत का पालन भी मुनि करता है । पंक्ति बद्ध सात घरों से लाया भोजन करणीय है । भोजन में कोई गृद्धता न हो। आहार सादा हो, दातार पर उसका कोई बोझ न हो, भ्रामरी वृत्ति हो । बौद्धधर्म में इस प्रकार के विशेष प्रतिबन्ध नहीं हैं ।
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जैनधर्म में बाईस परीषहों का वर्णन मिलता है जिन्हें श्रमण श्रमणी सहन करते हैं । इनके सहन करने से कर्म - निर्जरा होती है । बौद्धधर्म मध्यममार्गी होने के कारण तप की उतनी कठोर साधना का निर्धारण तो नहीं कर सका पर उसका कुछ अंश तो उपलब्ध होता ही है । मज्झिमनिकाय के सव्वासव सुत्तन्त में आश्रवों का क्षय सात प्रकार से बताया है - १. दर्शन (विचार), २. संवर, ३. प्रतिसेवन, ४. अधिवासन ( स्वीकार), ५. परिवर्जन, ६. विनोदन (विनिर्मुक्ति- हटाना ), और ७. भावना । इन प्रसंगों में क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक आदि बाधाओं की चर्चा की है पर वहां यह बताया है कि भिक्षु को भोजन, पानी, वस्त्र आदि उसी परिमाण में ग्रहण करना चाहिए जिससे वह इन बाधाओं से मुक्त हो सके । इसी प्रकार सुत्तनिपात के सारिपुत्तसुत्त में भिक्षुचर्या का वर्णन करते समय इस प्रकार की बाधाओं को सहन करने का उपदेश भिक्षु के लिए दिया गया है। वहां उन्हें परिस्सय ( परीषह ) भी कहा गया है। ( विक्खम्ये तानि परिस्सयानि, ४ १६-१५) ।
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परीषों की तुलना धुतांग से की जा सकती है । धुतांग का तात्पर्य है क्लेशावरण को दूर करने की ओर ले जाने वाला मार्ग (किलेसधुननतो वा धुतं) । राग- मोह चरित वालों के राग- मोह आदि दोषों को दूर करने की दृष्टि से इनका उपयोग निर्दिष्ट है । शील की परिशुद्धि के लिए भिक्षु को लोकाभिष ( लाभ - सत्कार आदि) का परित्याग, शरीर और जीवन के प्रति निर्ममत्व तथा विपश्यना भावना से संयुक्त होना चाहिए । इसकी प्रपूर्ति के लिए तेरह धुतांगों का पालन उपपोगी बताया है- पांसुकुलिकांग, चीवरिकांग, पिण्डपातिकांग, सापदानचारिकांग, एकासनिकांग, पात्रपिण्डिकांग, खलुपच्छा भत्तिकांग, आरण्यकांग, वृक्षमूलिकांग, अभ्यपकासिकांग, श्मशानिकांग, यथासंस्थरिकांग एवं सद्यांग ।
जैन बौद्ध आगमों में कल्प पर भी विचार हुआ है । कल्प का अर्थ है नीति, आचार योग्य । जो कार्य ज्ञान, शील, तप का उपग्रह करता है और दोषों का निग्रह करता है वह कल्प है । ये कल्प द
12. मूलाचार 427-465
13. प्रशमरतिप्रकरण, 143
११४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
प्रकार के हैं -आचेलक्य, औदेशिक, शय्यातर, राजपिण्ड, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमम, मासैकवासता, ओर पर्युषणाकल । ये साधु के दस स्थितिकल्प हैं ।
चुल्लवग्ग में भी दस कल्पों का उल्लेख है पर उनका सम्बन्ध वज्जिपुत्तक भिक्षुओं के आचार से है-शृंगिलवण कल्प, व्यंगुल, ग्रामान्तर, आवास, अनुमत, आचीर्ण, अमथित, जलोमीपान, अदशक और जातरूपरजत । ये ही कल्प संघभेद के कारण बने थे। इन दस विनयविरुद्ध वस्तुओं के उपयोग का विरोध यश ने किया। परिणामतः द्वितीय संगोति हुई जिसमें वैशाली के वज्जिपुत्तकों का पूर्णतः विरोध हुआ। आध्यात्मिक दृष्टि से ये कल्प यद्यपि गौण कहे जा सकते हैं पर जैन-बौद्ध विनय में इनका उल्लेख तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो जाता है।
महावग्ग के प्रारंभ में ही यह कहा गया है कि महात्मा बुद्ध ने तीर्थंकर महावीर का अनुकरण कर वर्षावास प्रारम्भ किया। उसी क्रम में निगण्ठोपोसथ को भी उन्होंने स्वीकार किया। चतुर्दशी, पूर्णमासी और अष्टमी को सभी भिक्षु एकत्रित होकर प्रातिमोक्ष की आवृत्ति स्थविर भिक्षु के समक्ष करते। उपोसथ या संघकर्म में सभी भिक्षुओं का उपस्थित होना आवश्यक है। प्रातिमोक्ष का पाठ कर “परिसुद्धोहं आवूसो परिसुद्धो ति मंधारेथ" तीन बार कहा जाता। यदि कोई किसी नियम से च्युत रहता तो वह निश्छल अवसे उसे स्वीकार करता । इसी को प्रवारणा कहा गया है। इसमें दष्ट, श्रत और परिशंकित अपराधों का परिमार्जन किया जाता है और परस्पर में विनय का अनुमोदन होता है -अनुजातानि भिक्खवे ......... 115 उपोसथ अपने अपने अपराधों की पाक्षिक परिशुद्धि होती है और प्रवारणा में वार्षिक परिशुद्धि होती है । जैन धर्म में उपोसथ जैसा प्रोषधोपवास नामक श्रावक का ग्यारहवाँ व्रत है। प्रवारणा की तुलना प्रतिक्रमण से की जा सकती है।
जैनविनय में तप का महत्व बौद्धविनय की अपेक्षा बहुत अधिक है। बाह्यतप के रूप बौद्धधर्म में नहीं मिलते । अन्तरंग तप के छहों प्रकार अवश्य मिल जाते हैं पर उनमें भी वह सघनता नहीं जो जैनधर्म में है। प्रायश्चित्त के आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक ये दसों भेद बौद्ध विनय के विभिन्न रूपों में प्राप्त हो जाते हैं। विनय में अनुशासन बनाये रखने के लिए तथागत बुद्ध ने अनेक प्रकार की दण्ड व्यवस्था की है। स्मृति विनय, अमूढ विनय, प्रतिज्ञातकरण
मथ, तत्पापीयसक जैसे दण्ड कर्मों में आलोचना और प्रतिक्रमण के दर्शन होने हैं। प्रव्राजनीय, मानत्व संघादि-शेष, पाराजिक की तुलना छेद, मूल और पारांचिक से की जा सकती है । गुरुमासिक, लघुमासिक, गुरुचातुर्मासिक और लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त भी उन्हीं कर्मों के साथ बैठ जाते हैं।
जिन कारणों से चित्त में एकाग्रता की प्राप्ति नहीं होती उन्हें असमाधिस्थान कहा जाता है। उनकी संख्या २० मानी गई है। (१) दवदवचारी-जल्दी-जल्दी चलना, (२) अप्पम हरण से मार्ग को बिना प्रमार्जित किये चलना), (३) दुप्पमज्जियचारी, (४) अतिरित्त सेज्जासहिए(शय्या का परिमाण अधिक रखना), (५) रातिणिअपरिभासी (गुरु से विवाद करना), (६) थेरोवघाइए (स्थविर का वध आदि करने का विचार), (७) भूओवघाइए (प्राणियों के वध का विचार करना), (८) संजलणं (प्रतिक्षण क्रोध करना), (६) कोहणं (अधिक क्रोध करना), (१०) अभिक्खणं-अभिक्खणं
14. मूलाचार, 421 ; भगवती आराधना, 427 ; निशोथभाष्य, 5933 15. महावग्ग, पृ० 167
श्रमण आचार मीमांसा : डॉ० भागचन्द्र जैन | ११५
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साध्वी रत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
ओहारइत्ता (बारम्बार निश्चयात्मक भाषा बोलना ), (११) पिट्ठिमंसिए ( पैशुन्य करना), (१२) णवाणं अधिकरगाणं अणुप्पण्णाणं उप्पाइत्ता (नवीन नवीन विवादों को उत्पन्न करने वाला), (१३) पोराणाणं अधिकरणाणं खमिअविउसविआणं पुणोदीरित्ता ( पुराने शान्त झगड़ों को पुनः खड़ा कर देना), (१४) अकाल सज्झाय कारए ( अकाल में स्वाध्याय करना), (१५) ससरक्ख पाणिपाए (सारक्त गृहस्थ से भिक्षा लेना), (१६) सद्दकरे ( उच्च स्वर से स्वाध्याय करना), (१७) झंझकरे ( संघ में विभेद पैदा करना ), (१८) कलहकरे, (१६) सूरप्पभाणभोई (सूर्यास्त तक भोजन करना), (२०) एसणाऽसमिते ( एषणा समिति का पालन न करना) । 16 इनमें से कुछ असमाधिस्थानों की तुलना पातिमोक्ख के सेखिय ( शैक्ष्य) नियमों के साथ और कुछ की पाचित्तिय नियमों के साथ तुलना कर सकते हैं। इसी प्रकार जैन विनय के शवल दोषों का भी संघादिशेष और पाचित्तिय नियमों में खोजा जा सकता है ।
जैन-बौद्ध श्रमण श्रमणी की विनयगत विशेषताओं को हम नीचे मात्र शाब्दिक तुलना के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं
जैन श्रमण विनय
(१) गृहवासपरित्याग (२) मुण्डन - केशलुञ्चन अपवाद में उस्तरा से
(३) दिगम्बरत्व
(४) काषाय और सफेद वस्त्र
(५) मूलगुण (६) पंच समिति
(८) महाव्रतपालक
(६) त्रिगुप्तिपालक (१०) अप्रमादी
(११) संयमी
(१२) रत्नत्रय संपन्न
(१३) प्रतिक्रमण
(१४) वर्षावास
(१५) असमाधिस्थान - २०-१-३
रातिणि अपरिभासी
भूओवघाइ
संजलणे
पिट्ठिमंसिए
अभिक्खणं २ ओहारयत्ता
16. समवायांग 20; दशाश्रु स्कन्ध 1; उत्तराध्ययन, 31/14 ११६ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
बौद्ध श्रमण विनय
गृहवासपरित्याग
मुण्डन आवश्यक पर केशलुञ्चन वर्जित अस्वीकार्य
काषाय वस्त्र
प्रातिमोक्ष संवरशील गोचर सम्पन्न, कुशल
कायवचन - कर्म परिशुद्ध
महाशील पालक
कायवचन कर्मयुक्त तथा चित्तविशुद्धि
स्मृतिमान्
इन्द्रगुप्त
प्रज्ञा, शील, समाधि संपन्न
प्रातिमोक्ष
वर्षावास
सेखिय ११-२०
पाचित्तिय २ - ओमसवादे पाचित्तिय ११ (भूतगामपातव्यताप )
पाचित्तिय १३ – उज्झापने
पाचित्तिय ३ - पेसु
पाचित्तिय ३६ भुत्तावि पुन पवारणे, ३७ भी
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ध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
पाचित्तिय ६३ अधिकरण उक्कोटने सेखिय-१३-१४ संघादिसेस-१० पाचित्तिय--२
संघादिसेस १-सुक्क-विसट्ठियं पाराजिक १, संघादिशेष २ पाचित्तिय ३७ विकालभोजने पाचित्तिय १ मुसावादे पाचित्तिय ११ निस्सग्गिय २०
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Timittaithun
पाचित्तिय ५७
णवाणं अधिकरणं-१२-१३ सद्दकरे झंझकरे
कलहकरे (१६) शबलदोष २१
रहत्थकम्मं करेमाणे मैथुन सेवन रात्रिभोजन औद्देशिक मृषावादन औद्देशिक मूलभोजन व कंदभोजन - क्रीत या उधार भोजन ग्रहण करना (६-७) जलप्रवेश व मायास्थानों का सेवन - (१२ व २०) हिंसा करना (१३) मृषावादन (१४) अदत्तादान (१५) सचित्त भूमि पर बैठना (१६-१६) सचित्त जलपान करना पापश्रेणियां अतिक्रम व्यतिक्रम अतिचार
अनाचार (१८) आसादना दोष (१६) गुरु-शिष्य विनय (२०) शबल
Siniliiitta
। । । । । ।
पाराजिक ३, पाचित्तिय ६१ पाचित्तिय १ पाराजिक १ पाचित्तिय १०-११ सेखिय-७४ पाचित्तिय ६२ किसी को मारने के लिए गड्ढा खोदना दुक्कडं उसमें उसके गिर जाने पर दर्द हो थुल्लच्चय उसके मर जाने पर-पाराजिक सेखिय धम्म ५७-७२ गुरु-शिष्य विनय खण्डकारी, चिट्टकारी, सबलकारी कम्मस्सकारी (अंगुत्तर II. P-६५) सवस्त्र । वस्त्र हों-कौशेय, कोजव, शाय, भंग, कंबल, क्षौम । बहुमूल्य वस्त्र ग्रहण निषिद्ध नहीं । तीन संघाटी विहित
-
(२१) निर्ग्रन्थ तथा सवस्त्र । वस्त्र हों
तो जंगिय, भंगिय, साणिय, पोतग, खोमिय, तुलकड ।
बहुमूल्य वस्त्र निषेध। (२२) मांस ग्रहण पूर्णतः वजित (२३) ईर्यापथगामी (इसका क्षेत्र
अपेक्षाकृत विस्तृत है)।
मांस ग्रहण त्रिकोटि-परिशुद्ध हो। ईर्यापथगामी (स्थान, गमन, निषद्या और शयन में)
श्रमण आचार मीमांसा : डॉ० भागचन्द जैन | ११७
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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
(२४) विभज्जवादी
विभज्जवादी
(२५) एक पात्र, और वह भी अलाबू, काष्ट या मिट्टी का
मिट्टी व लोहे का पात्र विहित है, काष्ठादि का नहीं ।
(२६) उपकरणों में वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपुञ्छन, अवग्रह, तथा कटासन विहित हैं ।
(२७) आहार-विहार में प्रतिबन्ध अधिक है ।
( २८ ) स्नान वर्जित है
( २ ) आभूषण, साजसज्जा वर्जित (३०) परक्रिया निषेध
(३१) संखडि भोजन निषिद्ध
(३२) औद्देशिक भोजन वर्जित ( ३३ ) उपसर्गों की तीव्रता तथा कठोर व्रतों का पालन
(३४) उपानह तथा छत्ते का उपयोग वर्जित है ।
(३५) परिग्रह तथा आरम्भ वर्जित है ( ३६ ) शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए कष्ट सहन या तप आवश्यक है । (३७) आहार दोषों का सूक्ष्म विश्लेषण (३८) अधर्मक्रिया - स्थानों का सूक्ष्म विश्लेषण
( ३६ ) विद्या, मन्त्र तन्त्र का निषेध फिर भी उनका यदा-कदा अहिंसक प्रयोग प्रचलित है । (४०) पंडक आदि को दीक्षा के अयोग्य माना गया ।
( ४१ ) आठ वर्ष से कम अवस्था वाले को प्रव्रज्या का निषेध
(४२) प्रव्रज्या के लिए माता-पिता की अनुज्ञा अनिवार्य है ।
११८ | चतुर्थं खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
उपकरणों में कैंची, वस्त्र - खण्ड, सुई, नाली नलिका, गोंद, जलगालन, मसहरी, उदक पान आदि विहित हैं । प्रतिबन्ध है, पर उस सीमा तक नहीं ।
स्नान की मात्रा अधिक न हो । वर्णादि का उपयोग न हो ।
जित है ।
परक्रिया निषेध
संखडिभोजन निषिद्ध वर्जित नहीं ।
कठोर व्रत और तप आवश्यक नहीं । अतः उपसर्गों की तीव्रता भी कम है । वर्जित नहीं ।
सीमित है ।
आवश्यक नहीं । मध्यम मार्ग अनुमत है ।
स्थूल विश्लेषण ।
अकस्मात् अनर्थदण्डादि को हिंसा रूप नहीं मानता ।
समानता पर विकास अधिक है। पंच मकारों का भी प्रयोग प्रारम्भ हो गया ।
पंडक आदि को उपसंपदा के अयोग्य माना गया ।
दस वर्ष से कम अवस्था वाले को उपसंपदा का निषेध
यहां भी अनुज्ञा अनिवार्य है ।
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________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ titutiHIRLLLLLLLL (43) प्रायश्चित्तस्वरूप दंड-व्यवस्था प्रायश्चित्तस्वरूप दण्ड-व्यवस्था (44) प्रायश्चित्त प्रवारणा (45) गणिन् की योग्यताएँ महावग्ग में भिक्षु की योग्यताएँ--- आचार, श्रुत, शरीर, वचन, वहुश्रुत, आगतागमो, अम्मधरो, विनय वाचना, मति, प्रयोग, संघ धरो, मातिकाधरो, पण्डितो, व्यत्तो, परिज्ञा / ये अनेक प्रकार से मेधावी, लज्जी कुक्कुच्चको, सिखाकामो। वर्गीकृत (आयारदसाओ) (46) द्वादशानुप्रेक्षा दस अनुस्मृतियाँ (47) चार भावनाएँ ब्रह्मविहार चार (48) मिथ्यात्व, प्रमाद, कषाय, अश्रद्धा, आलस, प्रमाद, विक्षेप, संमोह ये अविरति और योग-बन्धके पाँच इन्द्रियाँ कर्माश्रव के कारण / कारण। (46) सम्यक्त्व, व्रतस्थापन, अप्रमाद, पाँच बल-श्रद्धा, अनालस, अप्रमाद, उपशांतमोह, एवं क्षीणमोह संपन्न अविक्षेप और अमोह सम्पन्न / (50) अप्रमाद, धर्मानुप्रेक्षा, वीर्य, सप्तबोध्यंग-स्मृति, धर्म-विचय, वीर्य, प्रमोद, गुप्ति, ध्यान एवं प्रीति, प्रश्रुब्धि, समाधि उपेक्षा युक्त / माध्यस्थभाव युक्त। (51) रत्नत्रय अष्टांगिक मार्ग (52) कर्म उपशम, कर्मक्षय कर्म प्रहाण, कर्मसमुच्छेद (53) शुभ ध्यान में बाधक स्थलों कसिण की खोज में कतिपय विहारों का का त्याग त्याग (54) सम्यग्दर्शन बोधिचित्त (55) सम्यग्ज्ञान प्रज्ञा (56) सम्यक्चारित्र शील और समाधि (57) भेदविज्ञान धर्म-प्रविचय जैन-बौद्ध विनय की यह सामान्य तुलना है। विषय इतना विस्तृत है कि उसे एक अल्पकायिक निबन्ध में समाहित नहीं किया जा सकता। यहाँ मात्र इतना ही कथ्य है कि जैन-बौद्ध विनय परस्पर अधिक दूर नहीं है। उनमें आचारगत समानता काफी है। दोनों की तुलनार्थ दिये गये ये शब्द और विषय अग्रिम अध्ययन के लिए मात्र सांकेतक हैं। .. TIL श्रमण आचार मीमांसा : डॉ० भागचन्द्र जैन | 116 . Real onal www.jaine