Book Title: Shatrunjay Mahatmya
Author(s): Shravak Hiralal Hansraj
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 9
________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra शत्रुंजय ॥ ५ ॥ www.kobatirth.org दिव्यौषधिनिरन्वितः ॥ सदा शत्रुंजयोऽस्त्येष । सर्वपर्वतगर्वनित् ॥ ३८ ॥ कस्तूरीमृगयूथैश्च । मयूरैर्मत्त कुंजरैः ॥ संचरचमरीवृंदैः । सर्वतो ज्ञात्ययं गिरिः || ३७ || मंदारपारिजातक - संतानहरिचंदनैः ॥ विचित्रचंपकाशोक - सल्लकी कुल संकुलः ॥ ४० ॥ केतकीकुसुमामोदसुरजीकृत दिङ्मुखः ॥ ऊर न्निर्करिणीवारि - ऊंकारमुखरः सदा ॥ ४० ॥ मालती पाटलाकारा-गुरुचूतमुखैडुमैः ॥ शत्रुंजयो राजतेऽयं । सदापुष्पः सदाफलः ॥ ४१ ॥ त्रिनिर्विशेषकम् ॥ कल्पवृक्षधनछाया - सीनाः किन्नरनायिकाः ॥ गायंत्यो जिननाश्रस्य । गुणान् पापं किपंत्यमूः ॥ ४२ ॥ गिरिर्जरन्निर्जरांबु - शीकरैरेष तत्प्रियः ॥ मुक्तिसीमंतिनीहार - कृते मुक्ताः किरन्निव ॥ ४३ ॥ इतः कलापिनो वारि - शीकरैर्निर्द्धरोजवैः ॥ मेघोदयमनृतो । नृत्यंत्यर्हत्पुरोऽजितः || ॥ ४४ ॥ इतः पातालनाथोऽयं । सहस्रफणमंमितः ॥ जिननाथपुरो जाति । नाटयन् दिव्यनाटकं ॥ ४५ ॥ इतः संभूतनेपथ्याः । खेचर्यो वर्यगीतयः ॥ वीणाहस्ता विलोक्यते । गृणंगुणावलीः ॥ ४६ ॥ परस्परं विरुा ये । सत्त्वा श्राजन्मतोऽपि ते ॥ त्यक्तवैरा रमं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only माहाण • ॥ ५ ॥

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